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________________ . पारितकायोत्सर्गः, वन्दित्वा ततो गुरुम् । . .दैवसिकं त्वतिचारं, आलोचयेद्यथाक्रमम् ॥ ४१ ॥ पदार्थान्वयः-पारिय-समाप्त किया है, काउस्सग्गो-कायोत्सर्ग जिसने (ऐसा मुनि), तओ-तदनन्तर, गुरु-गुरु की, वन्दित्ताण-वन्दना करके, तु-फिर, देवसियं-दिन-संबंधी, अईयारं-अतिचारों की, जहक्कम-यथाक्रम, आलोएज्ज-आलोचना करे। मलार्थ-कायोत्सर्ग को समाप्त करने के अनन्तर मुनि गुरु की वन्दना करके, दिन-संबंधी अतिचारों की अनुक्रम से आलोचना करे।। ___टीका-जब मुनि ज्ञान, दर्शन और चारित्र में लगे हुए अतिचारों का विचार कर चुके, तब ध्यान को त्याग कर गुरु से चतुर्विंशतिस्तव रूप द्वितीय आवश्यक के करने की आज्ञा लेवे। उसके अनन्तर वन्दना रूप तृतीय आवश्यक की आज्ञा लेकर गुरु की द्वादशावर्त वन्दना करे। फिर गुरुदेव से आज्ञा लेकर चतुर्थ आवश्यक में लग जाए, अर्थात् दिन में लगे हुए ज्ञानादि विषयक अतिचारों की अनुक्रम से गुरु के समक्ष आलोचना करे। कारण यह है कि इस प्रकार करने से भविष्य के लिए विशुद्धि के परिणाम उत्पन्न हो जाते हैं। अब पूर्वोक्त विषय में फिर कहते हैं - पडिक्कमित्तु निस्सल्लो, वंदित्ताण तओ गुरुं । काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ॥ ४२ ॥ प्रतिक्रम्य निःशल्यः, वन्दित्वा ततो गुरुम् । . कायोत्सर्गं ततः कुर्यात्, सर्वदुःखविमोक्षणम् ॥ ४२ ॥ पदार्थान्वयः-पडिक्कमित्तु-प्रतिक्रमण से-प्रतिक्रमण करके, निस्सल्लो-नि:शल्य हो कर, तओ-तदनन्तर, गुरु-गुरु की, वंदित्ताण-वन्दना करके, तओ-तत्पश्चात्, सव्वदुक्ख-विमोक्खणं-सर्व । दु:खों से छुड़ाने वाला, काउस्सग्गं-कायोत्सर्ग, कुज्जा-करे। मूलार्थ-अतिचारों से निवृत्त होकर फिर मायादि शल्यों से रहित होकर, गुरु की वन्दना करके तदनन्तर सर्व प्रकार के दुःखों से विमुक्त करने वाले कायोत्सर्ग को करे। टीका-इस गाथा में भी पूर्व गाथा में वर्णित विषय का ही स्पष्टीकरण किया गया है। जैसे कि मुनि चतुर्थ आवश्यक करते हुए अतिचार रूप पापों से निवृत्त होवे, अर्थात् मन, वचन और काया से इसी आवश्यक में अतिचारों के लिए 'मिच्छा मि दुक्कडं-मिथ्या दुष्कृतं' देकर फिर श्रमण-सूत्र करे। फिर सर्व प्रकार के शल्यों से रहित होकर और गुरु की वन्दना करके पांचवें आवश्यक के अनुष्ठान की आज्ञा लेवे। तदनन्तर सर्व दु:खों के नाश करने वाला पांचवां कायोत्सर्ग नामक आवश्यक करे। यह . . प्रतिक्रम १. इन आवश्यकों के संबंध में विशेष जानकारी के लिए देखिए 'आवश्यकसूत्र'। २. मन से-भाव शुद्धि से-सूत्र पाठ से, काया से-मस्तक आदि नमाने से। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [५१] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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