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________________ स्थानों की देख-भाल करने की इसीलिए आवश्यकता है कि यदि कारण वशात् उक्त दोनों क्रियाओं की, अर्थात् मल-मूत्र के त्याग की आवश्यकता पड़े तो वह सुख पूर्वक कर सके, ताकि किसी जीव-जन्तु की विराधना न हो जाए। इस प्रकार मुनि की दिन-चर्या की विधि का वर्णन किया गया है। अब रात्रि-चर्या का वर्णन करते हैं-जैसे कि आवश्यक सूत्र के अनुसार प्रथम आवश्यक की आज्ञा लेकर और उसके मूल सूत्र को पढ़कर फिर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग के करने से सर्व प्रकार के शारीरिक और मानसिक दु:खों का क्षय हो जाता है। अब कायोत्सर्ग में विचारणीय एवं चिन्तनीय विषयों का वर्णन करते हैं - देवसियं च अईयारं, चिन्तिजा अणुपुव्वसो । नाणंमि दंसणे चेव, चरित्तम्मि तहेव य ॥ ४० ॥ दैवसिकं चातिचारं, चिन्तयेदनुपूर्वशः। . ज्ञाने च दर्शने चैव, चारित्रे तथैव च ॥ ४० ॥ .. पदार्थान्वयः-देवसियं-दिन-संबंधी, अईयारं-अतिचारों की, अणुपुव्वसो-अनुक्रम से, चिन्तिज्जा-चिन्तना करे, च-पुनः, नाणंमि-ज्ञान में, च-और, दंसणे-दर्शन में, तहेव-उसी प्रकार, चरित्तम्मि-चारित्र में लगे हुए अतिचारों की विचारणा करे, य-और, एव य-पूर्ववत् अर्थ जानना। मूलार्थ-अब मुनि को चाहिए कि वह दिन में लगे हुए ज्ञान, दर्शन और चारित्रविषयक अतिचारों की अनुक्रम से चिन्तना करे। टीका-जब सूर्य अस्त हो जाए और रात्रि का आरम्भ हो जाए, तब मुनि कायोत्सर्ग करके दिन में जो अतिचार लगे हों, उन सब का ध्यान में चिन्तन करे, अर्थात् ज्ञान-दर्शन और चारित्र में लगे हुए अतिचारों का विचार करे। सूत्रों में ज्ञान के चौदह और दर्शन के पांच अतिचार माने गए हैं, तथा चारित्र में आठ प्रवचन माता के, षट्काय, पांच महाव्रत, तैंतीस आशातनाओं और अठारह पापों से निवृत्ति आदि सभी अतिचारों का समावेश हो जाता है, सो ध्यान में उपयोग पूर्वक इन अतिचारों का चिन्तन करे। इतना ही नहीं, किन्तु मुख-वस्त्रिका की प्रतिलेखना से लेकर यावन्मात्र क्रियाएं की गई हैं, उन सबका विचार करे। फिर इस बात का भी विचार करे कि मुझसे आज कौन-सी क्रिया सूत्रानुसार हुई है और कौन-सी सूत्र के विपरीत हुई है, क्योंकि जो क्रिया सूत्र के विपरीत हुई हो उसके लिए पश्चात्ताप करना अत्यन्त आवश्यक है, इसलिए साधु कायोत्सर्ग में दिन-संबंधी अतिचारों का चिन्तन अवश्य करे। अब कायोत्सर्ग के पश्चात् करने योग्य क्रिया का वर्णन करते हैं - पारियकाउस्सग्गो, वंदित्ताण तओ गुरुं । देवसियं तु अईयारं, आलोएज्ज जहक्कम्मं ॥ ४१ ॥ १. 'देसियं' इति वृत्तिकारसम्मतः पाठः। तत्र वकारलोपः प्राकृत्वाद् ज्ञेयः। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [५०] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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