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________________ आवश्यक ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विशुद्धि के लिए कथन किया गया है, इसीलिए यह सर्व प्रकार के दु:खों से छुड़ाने वाला माना गया है। ___ अब फिर पूर्वोक्त विषय में ही कहते हैं - पारियकाउस्सग्गो', वन्दित्ताण तओ गुरुं । थइमंगलं च काऊणं, कालं संपडिलेहए ॥ ४३ ॥ पारितकायोत्सर्गः, वन्दित्वा ततो गुरुम् । स्तुतिमंगलं च कृत्वा, कालं संप्रतिलेखयेत् ॥ ४३ ॥ पदार्थान्वयः-पारिय-पार कर, काउस्सग्गो-कायोत्सर्ग को, गुरु-गुरु की, वन्दित्ताण-वन्दना करके, च-फिर, थुइमंगलं-स्तुति मंगल को, काऊणं-करके, कालं-काल की, संपडिलेहएप्रतिलेखना करे। मूलार्थ-कायोत्सर्ग को पार कर तदनुसार गुरु की वन्दना करके फिर स्तुति-मंगल को पढ़कर काल की प्रतिलेखना करे। टीका-जब पांचवां आवश्यक पूर्ण हो जाए, तब ध्यान को पूर्ण करके गुरु की विधि-पूर्वक वन्दना करे, तदनन्तर स्तुति-मंगल का पाठ करे, फिर काल की प्रतिलेखना करे। जैसे कि-रात्रि में तारों का पतन, विद्युत का प्रकाश, बादलों का गर्जन और दिग्दाह आदि तो नहीं हुआ, जिससे कि फिर स्वाध्याय का आरम्भ किया जाए। परन्तु वर्तमान समय में तो पांचवें आवश्यक के पश्चात् गुरु की विधि-पूर्वक वन्दना करने के अनन्तर छठे प्रत्याख्यान रूप आवश्यकं के करने की ही प्रथा चली आ रही है और वर्तमान समय का जैन-वर्ग इसी आम्नाय को अपना रहा है। परन्तु सूत्र में जब रात्रि का आवश्यक करने का विधान किया जाएगा, तब उस समय छठे आवश्यक के करने का विधान किया गया है। यहां पर तो सामाचारी का संक्षिप्त विषय होने से उसका दिग्दर्शन मात्र कराया जा रहा है। अतः छठा आवश्यक करके स्तुति-मंगल अर्थात् 'नमोत्थुणं' का पाठ पढ़े (अन्य सब विधि आवश्यक सूत्र से जान लेनी चाहिए) फिर स्वाध्याय करने के लिए काल की प्रतिलेखना करे, जिससे कि शास्त्रनिर्दिष्ट समय में स्वाध्याय आदि क्रियाएं की जा सकें। अब प्रतिक्रमण के पश्चात् अन्य रात्रि-कृत्यों के विषय में फिर कहते हैं - पढमं पोरिसि सज्झायं, बिइयं झाणं झियायई । तइयाए निद्दमोक्खं तु, सज्झायं तु चउत्थिए ॥ ४४ ॥ प्रथमपौरुष्यां स्वाध्यायं, द्वितीयायां ध्यानं ध्यायेत् । तृतीयायां निद्रामोक्षं तु, स्वाध्यायं तु चतुर्थ्याम् ॥ ४४ ॥ १. इस विषय का पूर्ण विवरण 'आवश्यक सूत्र' में देखना चाहिए। २. बृहद्वृत्तिकार ने इस गाथा के प्रथम पाद के स्थान में सिद्धाणं संथवं किच्चा, ऐसा पाठान्तर भी माना है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [५२] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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