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________________ अष्टादशाध्ययनम् . ] हिन्दी भाषाटीकासहितम् । [ ७६१ वैभव को छोड़कर संयमवृत्ति को धारण किया और आत्मलिप्त कर्ममल को धोकर कैवल्य-प्राप्ति द्वारा मोक्षस्थान को अलंकृत किया । तथा अन्य प्रतियों में, प्रस्तुत गाथा के तृतीय पाद के ' जहित्तारज्जं' के स्थान पर - ' - 'चइऊणगेहूं' ऐसा पाठ देखने में आता है और वर्तमान में प्रायः यही पाठ पढ़ने में आता है । अब प्रसंगवशात् चारों प्रत्येकबुद्धों के विषय में कहते हैं करकण्डू कलिंगेसु, पंचालेसु य दुम्मुहो । नमी राया विदेहेसु, गन्धारेसु य करकण्डुः कलिंगेषु, पंचालेषु च नमी राजा विदेहेषु, गन्धारेषु च नगई ॥ ४६ ॥ द्विमुखः । निर्गतिः ॥४६॥ पदार्थान्वयः—करकंडू–करकंडु राजा कलिंगेसु-कलिंगदेश में हुआ य-और पंचालेसु-पंचाल देश में दुम्मुहो- द्विर्मुख राजा हुआ नमी राया- नमि राजा विदेहेसुविदेह देश में य-और गंधारेसु - गंधार देश में नग्गई- नग्गति — निर्गति राजा हुआ । मूलार्थ - कलिंगदेश में करकडू, पंचाल देश में द्विर्मुख, विदेहदेश में नमि और गन्धारदेश में नग्गति नाम का राजा हुआ । [ ये सब राजे राजपाट को छोड़कर जैनधर्म में दीक्षित हुए ] और संयम को पालकर मोक्ष को गये । टीका - इस गाथा में चारों प्रत्येकबुद्धों का उल्लेख किया गया है । इनमें कलिंगदेश के करकंडू को वृद्धवृषभ के दर्शन से वैराग्य उत्पन्न हुआ, पंचालदेश के द्विर्मुख को इन्द्रस्तम्भ 'के देखने से वैराग्य हुआ तथा नमि राजा ने चूड़ियों के शब्दों को सुनकर संसार का परित्याग कर दिया और गन्धार देश के नग्गति राजा आम्रवृक्ष को देखकर वैराग्यवश दीक्षित हो गए। इस प्रकार ये चारों ही प्रत्येकबुद्ध संयमवृत्ति में आरूढ़ होते हुए अन्त में मोक्ष को गये । इनके विषय का सम्पूर्ण वृत्तान्त प्रस्तुत सूत्र की बड़ी टीकाओं में से देख लेना । तथा उक्त गाथा में दिया हुआ सप्तमी का बहुवचन एक वचन के स्थान पर समझना । परन्तु वृहद् वृत्तिकार नें उक्त गाथा पाठ को इस प्रकार से स्वीकार किया है यथा- 'करकंडू कलिंगाणं, पंचालाणं य दुम्मुहो । मि राया विदेहाणं, गंधाराण य नग्गई । यहाँ पर सभी पद षष्ठ्यन्त दिखलाए हैं ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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