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________________ ७६२ ] - उत्तराध्ययनसूत्रम्- [ अष्टादशाध्ययनम् इसके अतिरिक्त बृहद्वृत्ति में ४५वीं गाथा को प्रक्षिप्त कहा है क्योंकि उसके भाव का वर्णन नवमें अध्ययन में स्पष्ट और विस्ताररूप से आ चुका है। ___ अब इनके विषय का उपसंहार करते हुए कहते हैं एए नरिन्दवसभा, निक्खंता जिणसासणे। पुत्ते रज्जे ठवित्ता णं, सामण्णे पज्जुवट्ठिया ॥४७॥ एते नरेन्द्रवृषभाः, निष्क्रान्ता जिनशासने । पुत्रान् राज्ये स्थापयित्वा, श्रामण्ये पर्युपस्थिताः ॥४७॥ ___ पदार्थान्वयः-एए-ये सब नरिंदवसभा-नरेन्द्रों में वृषभ के समान निक्खंता-संसार को छोड़कर दीक्षित हुए जिणसासणे-जिनशासन में पुत्त-पुत्रों को रजे-राज्य में ठवित्ता स्थापन करके सामण्णे-श्रमणता में पज्जुवट्ठियासावधान हुए णं-वाक्यालंकार में। ___मूलार्थ-नरेन्द्रों में वृषभ के समान-[ श्रेष्ठ ] ये सब राजे संसार को छोड़कर जिनशासन में दीक्षित हुए, और पुत्रों को राज्य का भार सौंपकर स्वयं श्रमणवृत्ति का सम्यग् अनुष्ठान करके मोक्ष को गये। .. टीका-प्रस्तुत गाथा में वैराग्य होने के पश्चात् विचारशील पुरुष को क्या करना चाहिए इस बात का दिग्दर्शन नमि आदि राजाओं के उदाहरण द्वारा कराया गया है। तात्पर्य यह है कि वैराग्य होने के अनन्तर जिस प्रकार इन्होंने अपने २ राज्य पर पुत्रों को स्थापन करके श्रवणवृत्ति को स्वीकार करके आत्मशुद्धि के द्वारा कैवल्य अर्थात् मोक्ष को प्राप्त किया उसी प्रकार प्रत्येक मुमुक्षुपुरुष को चाहिए कि वह वैराग्य होने पर अपनी सांसारिक विभूति को अपने किसी उत्तराधिकारी के सुपुर्द करके स्वयं साधुवृत्ति का अनुसरण करता हुआ सर्वश्रेष्ठ मोक्षमार्ग का ही पथिक बनने का प्रयत्न करे। इस प्रकार इन चारों प्रत्येकबुद्धों का उल्लेख करके अब सिंधु सौवीर के अधिपति महाराजा उदायन के विषय में कहते हैं सोवीररायवसभो , चइत्ता णं मुणी चरे। उद्दायणो पव्वइओ, पत्तो गइमणुत्तरं ॥४८॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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