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________________ ३२८ पलयमेहव्व'--युद्ध में भाले, बर्खे और तलवारों द्वारा मार-काट होने से रक्त की वर्षा हो रही है। युद्धभूमि की इस मारकाट की भयंकरता को दिखलाने के लिए प्रलय मेघ का चाक्षुष बिम्ब प्रस्तुत किया है। प्रलय मेघ की भीषण वर्षा जिस प्रकार विनाश का कारण बनती है, उसी प्रकार युद्ध में भाले, बर्खे और खड्ग प्रहार भी विनाश का दृश्य उपस्थित भवाडवी--संसार के विभिन्न सम्बन्धों और स्वार्थ-परताओं का सांगोपांग चित्र उपस्थित करने के लिए "भवाडवी" का चाक्षुष बिम्ब प्रयुक्त हुआ है। इस बिम्ब द्वारा संसार के भीषण और सुखद दोनों ही रूप अंकित किये गये हैं। अटवी में खूखार जानवरों का निवास होने के साथ शीतल छाया और जंगली फल भी प्राप्त होते हैं। एक ओर भयंकरता और शून्यता है, तो दूसरी ओर प्राकृतिक दृश्यों की रमणीयता भी। संसार में भी उक्त दोनों बातें पायी जाती है। यह सत्य है कि प्रधान रूप से इस बिम्ब द्वारा संसार के भीषण रूप का ही उद्घाटन होता है। ___ वसन्तलच्छोए --वसन्त लक्ष्मी के चाक्षुष बिम्ब द्वारा क्रीड़ा सुन्दर उद्यान की सुषमा का उल्लेख किया गया है। चन्दो ---इस बिम्ब द्वारा चढ़ती हुई युवावस्था के आह्लादक और मोहक रूप की अभिव्यंजना की गई है। माइन्दजाल --जीवलोक की अनित्यता दिखलाने के लिए माइन्दजाल रूप अप्रस्तुत की योजना की है। इस अप्रस्तुत द्वारा पूरा चित्र नेत्रों के समक्ष उपस्थित हो जाता मयगयवइगहिरोल्लोल्लसोएल--पलाश के फूले वृक्ष तत्काल मृत हाथी के चमड़े पर संलग्न मांस के समान शोभित थे। यहां हाथी के आर्द्रचर्म से संसक्त मांस के बिम्ब द्वारा पुष्पित पलाश वृक्षों के चाक्षुष सौंदर्य का सटीक विश्लेषण किया है। यहां अप्रस्तुत की योजना बड़ी सार्थक और नवीन है। श्रवण बिम्ब-- श्रवण इन्द्रियजन्य अनुभूति के आधार पर की गई अप्रस्तुत योजना उक्त कोटि के बिम्बों के अन्तर्गत आती हैं। इस श्रेणी के बिम्ब समराइच्चकहा में एकाध ही हैं। मेघ गर्जना द्वारा युद्ध के वाद्यों का साकार चित्र उपस्थित किया गया है। अतीन्द्रिय बिम्ब-- अतीन्द्रिय विषयों की अप्रस्तुत योजना द्वारा उच्च कोटि के विम्बों की योजना की गई है । यथा-- पमायकलंक --कलंक अमूत्तिक है। प्रमाद को कलंक कहा जाना इस बात का सूचक है कि यह जीवन के लिए अभिशाप है। जीवन का सर्वांगीण विकास प्रमाद-कलंक के दूर होने पर ही हो सकता है। १--स०, पृ० ४६७ । २-- वही, पृ० ४७६ । ३---वही, पृ० ७८ ।। ४--वही, पृ० ७८ । ५.-.-वही, पृ० ५७० । ६---वही, पृ० ६३७ । ७-.-वही, पृ० ३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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