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________________ ३२६ हरिणया'--इस मूर्तिक अप्रस्तुत द्वारा अमतिक मृत्युभय की अभिव्यंजना की गयी है। हरिणी का त्रस्त होना एक बिम्ब की योजना करता है, जिससे मृत्यु भय का सजीव चित्र नेत्रों के समक्ष प्रस्तुत हो जाता है। इस प्रकार हरिभद्र ने बिम्ब योजना या अप्रस्तुत योजना द्वारा भावों की अभिव्यंजना में तीवता, स्पष्टता, चमत्कार और उत्कर्ष को प्रकट किया है। ये बिम्ब स्वरूप-बोधन के साथ सौन्दर्य बोधक भी होते हैं। स्वरूप बोध में रमणीयता लाने के लिए काव्यक्षेत्र में बिम्ब योजना की अत्यधिक आवश्यकता है। भावोत्तेजन में इन बिम्बों ने पर्याप्त साम्य उपस्थित किया है । जिस भाव को प्राचार्य हरिभद्र व्यक्त करना चाहते है, उस भाव को पाठकों के हृदय में पहुंचाने में वे इस बिम्ब योजना द्वारा पूर्ण समर्थ है। हरिभद्र द्वारा प्रयुक्त बिम्ब एक प्रकार से अप्रस्तुत योजना के अन्तर्गत पा सकते है। यतः अप्रस्तुत योजना को मार्मिकता ही बिम्ब का रूप ले लेती है। सहज ज्ञान में दोनों की उत्पत्ति होती है। ३। रूपविचार-- ____ कलाकार अपनी सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति द्वारा जिस प्रकार अलंकार योजना, बिम्ब योजना और प्रतीक योजना करता है, उसी प्रकार रंगों का समुचित प्रयोग कर अपनी कला को रमणीय बनाता है। यहां हरिभद्र के रूप विचार से हमारा तात्पर्य उनकी रंग योजना से ही है। यह सत्य है कि उस आठवीं शती में आज के मनोविज्ञान का जन्म भी नहीं हुआ था, पर समराइच्चकहा में रंग-योजना दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक और साहित्यिक इन तीनों दृष्टियों से समुचित और संतुलित रूप में सम्पन्न हुई है। कलाकार उपमाओं, उत्प्रेक्षाओं और रूपकों में रंगों का सन्निवेश करता है। यह सन्निवेश कहां तक समुचित और कला के सूक्ष्म मर्म का स्पर्शी होता है, यही कला में विचारणीय होता है। मनोरागों को यथार्थ स्थिति का विश्लेषण करने वाला कलाकार रंगों को योजना में अत्यन्त प्रवीण भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में श्रृंगार श्याम, हास्य श्वेत, करुण कबूतर के रंग वाला, रौद्र लाल, वीर गोरा, भयानक काला, वीभत्स नीला और अदभत पीतवर्ण का माना है। जो कलाकार अपने वर्णन में रसों के वर्णानुसार रूप का सन्निवेश करता है, वह कलाकार श्रेष्ठ माना जाता है। मनोविज्ञान लाल, पीला, हरा और नीला इन चार रंगों को मौलिक एवं प्रारम्भिक मानता है। अन्य सभी रंग इन्हीं के सम्मिश्रण से उत्पन्न होते हैं। कुछ विद्वान रंगदृष्टि-संबंधी सिद्धान्त (थ्योरी ऑफ कलर विजन) में तीन ही प्रारंभिक रंगों का उल्लेख करते हैं। पीले रंग को वे लाल और हरे रंग का सम्मिश्रण मानते हैं। इन तीन प्रकार के मौलिक रंगों की संवेदना की व्याख्या के लिए उन्होंने अक्षिपट (रेटीना) में तीन प्रकार की सूचियों का अस्तित्व माना है। जब ये सूचियां कोनेस अलग-अलग उत्तेजित होती है तो उनसे क्रमशः लाल, हरे एवं नीले रंग की संवेदनाएं उत्पन्न होती है। पीले रंग की संवेदना तभी होती है, जब लाल और हरे रंगवाली सूचियां समान मात्रा में प्रकाश तरंगों के द्वारा बिल्कुल समानानुपात में उत्तेजित की जाती है, तो हमें रंगविहीन दृष्टि संवेदना होती है। रंगहीन संवेदना से प्राशय श्वेत, पाण्डु और कृष्ण की संवेदना से है। अतः उक्त तीनों रंगों को मूल रंगों के अन्तर्गत नहीं रखा गया। १---स०, पृ० ३५२ । २--श्यामो भवेतु श्रृंगारः सितो हास्यः प्रकीर्तितः ।--पीतत्तु चै वाद्भुतः स्मृतः ।। --भर० नाट्य ६ । ४२-४३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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