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________________ ३१४ विरहि विव कुसुमाउहो, रोहिणीविश्रोश्रो विव मयलछणो परिचत्तमइरो विव कामपालो सचीविउत्तो विव पुरन्दरो -- स० पृ० ८४-८५ । (८) हरिभद्र ने राज्य - प्रस्तुत या उपमेय का विभिन्न उपमानों द्वारा बड़ा ही हृदयग्राय वर्णन किया है । इस वर्णन द्वारा राज्य की भयंकरता, सारहीनता और उसकी अनेक विशेषताएं प्रकट होती हैं । कवि कहता है कि राज्य पाताल के समान अपूरणीय कामनावाला, अनेक छिद्रों से पूर्ण पुराने भवन के समान त्रुटियों से पूर्ण, दुष्टों की संगति के समान नाना दुःखदायक, वेश्या के समान धन से प्रेम करने वाला, वामी में अनेक सर्पों के निवासों के समान विपत्तियों का निवास, संसार के समान कभी न समाप्त होनेवाले कर्मवाला, सर्प के पिटारे के समान यत्न से रक्षणीय और वेश्या के यौवन के समान अनेक लोगों से स्पृहणीय होता है । रज्जं हि नाम पायालं पिव दुप्पूरं जिष्णभवणं पिव सुलहविवरं, खलसंगयं पिव विरसावसाणं, वे सित्थियाहिययं पिव प्रत्थवल्लहं, वम्मीयं पिव बहुभुयंगं, जीवलोयं पिव प्रणिट्ठियकज्जं सप्पकरण्डयं पिव जत्तपरिवालणिज्जं प्रणभिन्नं विसम्भसुहाणं, वेसाजोव्वणं पिव बहुजणाभिलसणीयं । -- स० पृ० १५० । (६) जेल की भयंकरता और बीभत्सता का वर्णन करते हुए लिखा है कि वन्दीगृह दुःषमकाल के वासगृह के समान, प्रधर्म की लीलाभूमि के समान, सीमान्त नरक के सहोदर के समान, समस्त दुःखों के सखा के समान, समस्त यातनाओं के लिए कुलगृह के समान, मृत्यु की विलासभूमि के समान, कृतान्त यमराज के सिद्धिक्षेत्र के समान था । यहां प्रस्तुत जेल का अनेक प्रस्तुन उपमानों द्वारा वर्णन किया है। ये सभी उपमान जेल का एक मूर्तिमान रूप उपस्थित कर देते हैं । वासहरं पिव दुस्समाए, लीलाभूमि पिव श्रधम्मस्स, सह यरं पिव सीमन्तयस्स, सहा विव सव्वदुक्ख समुदयाणं, कुलहरं पिव सव्वजायणाणं, विस्सासभूमि पिव मच्चुणो, सिद्धिख तं पिव कयन्तस्सति । -- स० पृ० १५४ । (१०) सनत्कुमार मुनि के रूप-सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कवि ने बताया है कि वह दीप्ति में दिनकर के समान, सौम्यता में हिमांशु के समान, गंभीरता में समुद्र के समान, मूल्यार्हता में रत्नराशि के समान, सौन्दर्य में कामदेव के समान, रमणीयता में स्वर्ण के समान और अनिर्वचनीयता में मोक्ष के समान था । दिrयरो far दित्याए चन्दो विय सोमयाए, समुद्दो विय गंभीरयाए, रयणरासी विय महग्घयाए कुसुमामलो विथ लाया गयाए, सग्गो विय रम्मयाए, मोक्खो विय निव्वयणिज्जयाए । -- स० पृ० ३६५ । (११) कवि ने विलासवती के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए अनेक प्रस्तुतों का प्रयोग किया है । सनत्कुमार ने विलासवती को तारागण से परियुक्त जलधरोदर विनिर्गतः रजनीकर प्रणयिनी कुमुदिनी के समान, कलहंसी परिवार सहित राजहंसी के समान, स्थूल- मुक्ताफलों से युक्त सलावण्य पयोधरा समुद्रवेला के समान, वसन्तलक्ष्मी से परिगत अनंग गृहिणी रति के समान शोभित देखा । दिट्ठाय तत्थ जल हो यरविणिग्गय रयाणियरपणइणि व्व तारायणपरिवुडा रायहंसि व्व कलहं सिपरिवारा समुद्दवेल व्व थूलमुत्ताहलकलियसलाय णपनोहरा, प्रणंग घरिणि व्व उलच्छ परिगया चित्ताणुकूलाणुरत्त निउणसहियणमज्झगया । -- स०पृ० ३७८ । (१२) युद्ध के समय सेना प्रयाण का रोमांचकारी वर्णन करते हुए बताया है कि दुर्जन की वाणी के समान हृदय को विदीर्ण करने वाले भाले लाये जाने लगे, यमजिहवा क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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