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________________ ३१३ प्रस्तुत या उपमेय नरेन्द्र है और अप्रस्तुत या उपमान बुदिन है । दोनों की समता दिखलाता हुआ कवि कहता है कि नरेन्द्र सेना में कविवर समूह मेघ घटा के समान उन्नत ध्वजा, चमर और छत्र बलाका पंक्ति के समान, तोक्षण करवाल और भाले बिजली के समान तथा शंख, काहल और सूर्य का घोष मेघगर्जना के समान था । करिवरविरायन्तमे हजालं, ऊसियधप- चमर छत्तसंघाय बलायपरिययं, निसियकरवालकोन्तसोयामणि साह, संख-काहलतूरनिग्घोसगज्जियखपूरियदिसं, अयालदुद्दिणं पिव समन्तओ वियम्मियं नरिन्दसाहणं ति । स० पृ० २८ । (३) विजयसेन आचार्य के रूप सौन्दर्य का वर्णन करते समय अनेक उपमानों का प्रयोग किया गया है। यहां प्रस्तुत या उपमेय विजयसेन आचार्य हैं और अप्रस्तुत या उपमान अनेक हैं। कुछ उपमान मूत्र्तिक और कुछ अमूर्तिक हैं। कवि कहता है कि वह आचार्य पृथ्वी के भूषण के समान, सभी मनुष्यों के नेत्रों के लिए आनन्द के समान, धर्म में संलग्न लोगों के लिये प्रत्यादेश के समान, परम सौभाग्य के निलय के समान, कान्ति के स्थान के समान, क्षमा के कुलगृह के समान, गुणरत्नों के समूह के समान और पुण्यकर्म के फलसर्वस्व के समान थे। 'मण्डणमिव वसुमईए, आणन्दो व्व सयलजणलोयजाणं, पच्चाएसो व्व धम्मनिरयाणं, नलिओ व्व परमधन्नयाए, ठाणमिव आदे यभावस्; कुलहरं पिव खन्तीए, आगरो इव गुणरयणाणं, विवागसव्वस्समिव कुसलकम्मस्स" - स०पू० ४४ ॥ • (४) अशोक वाटिका का वर्णन करते हुए कवि ने बताया है कि वहां राजनीति के समान सघन आम्रवृक्ष, परस्त्री के दर्शन से भयभीत सत्पुरुषों के समान बापीतट, पादप और सत्पुरुषों की चिंता के समान लताएं, दरिद्र और कामी हृदय के समान आकुलित लतागृह, विषय-संसक्त पाखण्डियों के समान अशोभित होने वाले निम्ब पादप एवं कुसम्भ रक्त वस्त्रधारी नववर के समान रक्त अशोक शोभित था । " जत्थ नीइबलिया विव नरवई दुलहविवरा सहयारा, परकलत्तदंसणभीया विव सप्पुरिसा अहोमुहट्ठिया वावीतडपायवा, विणिवडियसप्पुरिसचिन्ताओ विव अडालविडालाओ अइमुत्तयलयाओ, दरिद्द - कामिहिययाई निव समन्तओ आउलाउं लयाहराई, विसयपसत्ता विव पासण्डिणो न सोहन्ति लिम्बपायवा नववरगाविव कुसुम्भ त्तनिवसणा विरायन्ति रत्त सोया, स० ०४४ । (५) वसन्त का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि उस समय जयध्वनि के समान कोलों का कलरव, विरहाग्नि से दग्ध पथिक समूह से निकलते हुए धूम्र के समान आम् वृक्षों पर भ्रमर गुंजार कर रहे थे । मृतपति के साथ श्मशान भूमि में जलने वाली विधवा से निकलती हुई लाल-लाल लपटों के समान किंशुक पुष्पों से दिशाएं लाल हो रही थीं । जय जयसद्दोव्व कोइलाहि कओ कोलाहलो, विरह ग्गिज्झन्तपहियसंघाय - धूमपडलं व वियम्मियं सहयारेसु भमरजालं, गयवइयामसाणजलणे हि विव पलितं दिसामंडलं किसुयकुसुमेहिं ति । -- स० पृ० ७८ (६) कुसुमावली के रूपसौंदर्य का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि उसकी केले के स्तम्भ के समान मनोहर जंघाएं, स्थलकमल के समान आरक्त चरणयुगल थे और वह उद्यान लक्ष्मी के समान ॠतुलक्ष्मी से परिचित थी । For कोमल गुबाहुलतया रम्भाखम्भमणहरोरुज यला थलकमलरत्तकोमल चलणजुयला उज्जाणदे वय व उउलच्छिपरियरिया नियमाउलगस्स चेव । -- स० पृ० ७९ । (७) हरिभद्र ने उपमा के प्रयोगों में बड़ी सतर्कता रखी है । जो जिसके योग्य हैं उसे उसी प्रकार की उपमा से विभूषित किया है । श्रविवाहित सिहकुमार को एकाकी स्थिति में देखकर कुसुमावली उसके सौन्दर्य का वर्णन करती हुई सखि से कहती है। -- वह रति रहित कामदेव के समान, रोहिणी रहित चन्द्रमा के समान, मदिरा रहित बलदेव के समान, न्द्राणी रहित इन्द्र के समान सुशोभित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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