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________________ ३१५ समान सुभटजनों के रक्त की लालसा करने वाली और बहतों के जीवन का हरण करने वाली तलवारें चमकने लगीं। वेश्या के समान गुण से निबद्ध रहने पर भी प्रकृति के कुटिल धनुष लाये जाने लगे । दुष्टों के वचन के समान मर्म छेदन करने वाले नाराच तैयार किये जाने लगे। दुज्जणवाणीयो विय भेयकरीमो आणीयन्ति भल्लीप्रो, जमजीहासन्निगासामोसुहडजणरुहिरलाल सानो सुबहुजणजीवियहरीयो पायडिज्जन्ति असिलट्ठीप्रो, वेसित्थियानो विय गुणनिबद्धाम्रो वि पयइकुडिलानो घणुहीरो, खलजणालावा विय मम्मघट्टण-समत्था य नाराय, असणिलयासन्निगासापो य गयाओ ।--स० पृ० ४६४ । (१३) सुन्दरवन नामक उद्यान का वर्णन करते हुए लिखा है कि यह उद्यान ऋतुओं के समवाय के समान, गन्धसमृद्धि के निवास के समान, वनस्पतियों के कुलगृह के समान और मकरध्वज के पायतन के समान था। __तं पुण समवायो विय उऊणं निवासो विय गन्धरिद्धीए कुलहरं विय वणस्सईणं प्राययणं विय मयरद्धयस्स ।--स०पृ० ४२४ । ___ उपर्युक्त प्रमुख उदाहरणों के अतिरिक्त उपमा अलंकार का प्रयोग समराइच्चकहा में निम्न स्थानों पर भी हुआ है । इसमें सन्देह नहीं कि हरिभद्र ने किसी भी वस्तु की रूपगुण सम्बन्धी विशेषता स्पष्ट करने के लिए, दूसरी परिचित वस्तु से, जिसमें वे विशेषताएं अधिक प्रत्यक्ष है, उसकी समता दिखलायी है।पष्ठ ४४, ६,१०६,१४४,१४६,१५८,२०२. ३३७, ३५२, ३६३, ३६५, ३७१, ३७६, ३८०, ४०६, ४२८, ४३७, ४६२, ४६७, ४६६, ४८१, ४८२, ४६४, ५४६, ६०५, ६०६, ६३७, ६३८, ६५७, ७६५, ७६८, ८०८, ८१५। उपर्युक्त पृष्ठांकों के अतिरिक्त छोटी-मोटी उपमा एकाध स्थल पर और भी वर्णित है किन्तु इन उपमाओं में कोई विशेष चमत्कार नहीं है । ३-अनन्वय । हरिभद्र ने अनन्वय अलंकार का प्रयोग भी कई स्थलों पर किया है । इस अलंकार में उपमानोपमेयत्वम कस्यै वत्वनन्वयः--एक ही वस्तु उपमान और उपमेय दोनों रूपों में प्रयुक्त होती है । उदाहरणः-- (१) रूवं पिव रूवस्स, लावणं पिव लायण्णस्स, सुन्दरं पिव सुन्दरस्स, जोवणं पिव जोव्वणस्स मणोरहो विय मणोरहाणं ।----स० पृ० ८५-८६ । ___ यहां रूप के लिए रूप, लावण्य के लिए लावण्य, सौन्दर्य के लिए सौन्दर्य, यौवन के लिए यौवन और मनोरथों के लिए मनोरथ उपमान का प्रयोग किया गया है। (२) पीईए विय पाविमो पीई, धिईए व अवलम्बियो धिई, ऊसवेण विय को में ऊसवो ।--स०पृ०३७७ । ४-रूपक प्रस्तुत या उपमेय पर अप्रस्तुत या उपमान का प्रारोपकर रूपक अलंकार की योजना हरिभद्र ने की है । इस अलंकार का प्रयोग निम्न लक्ष्यों की सिद्धि के लिए किया है: (१) कविता में संक्षिप्तता और सुनिश्चितता लाने के लिए। (२) अधिक-से-अधिक भावों को संक्षेप में व्यक्त करने के लिए। (३) प्रारोप को चमत्कृत कर भावों में प्रेषणीयता उत्पन्न करने के लिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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