SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ का यह सहयोग कथा को चमत्कृत करने के साथ गतिशील भी बनाता है। यह संसर्ग सत् और असत् दोनों रूपों में प्राप्त होता है। सत् रूप में विपन्न नायक की सहायता और असत रूप में तप या ध्यान में रत नायक को घोर उपसर्ग दिया जाता है। दोनों ही दृष्टियों से यह कथानक रूढ़ि समान रूप से ही कथा में गतिमत्व धर्म उत्पन्न करती ७--अदृश्य शक्ति द्वारा कार्य-साधन या कार्य-विराधन जब नायक अपने बल-पौरुष द्वारा कार्य सम्पन्न नहीं कर पाता है, उस समय विद्याधर और नाग आदि के अतिरिक्त कोई ऐसी अदृश्य शक्ति कार्य में सहायक होती है, जिसे नगरदेव, ग्रामदेव, वनदेव या रक्षपाल कहा जा सकता है। इस परोक्ष शक्ति के द्वारा नायक की प्राणरक्षा तो होती ही है साथ ही वह निर्दोष भी सिद्ध किया जाता है। यज्ञदेव चन्दनसार्थवाह के यहां से चोरी कर सारा सामान चक्रदेव के यहां रख देता है और चक्रदेव को राजा से चोर कहकर उसे गिरफ्तार भी करा देता है । राजाज्ञा से चक्रदेव निष्कासित कर दिया जाता है । अतः वह आत्महत्या करना चाहता है। इस कार्य को पूर्ण करने के लिए वह अपने उत्तरीय को वट के वृक्ष में बांध कर फांसी लगा लेना चाहता है, जिससे अपनी कलुषित आत्मा को किसीको नहीं दिखला सके। इसी समय नगर देवता को चऋदेव के ऊपर दया उत्पन्न होती है और वह राज भवन में जाकर राजमाता को सारी स्थिति से अवगत करा देता है। ___ कथाकार ने उक्त स्थिति में उपर्युक्त कथानक रूढ़ि का प्रयोग कर नायक के चरित्र को निर्दोष तो सिद्ध किया ही है, साथ ही कथानक को दुःखान्त होने से बचाया है। इस रूढ़ि या अभिप्राय के प्रयोग के बिना कथा आगे बढ़ भी नहीं सकती थी। अतः लेखक का यह प्रयास श्लाघनीय हैं। कई स्थानों पर यह कथानक रूढ़ि नायक के कार्यविराधन के रूप में भी आती है। किसी कारणवश नायक या प्रतिनायक को कष्ट देने का कार्य भी इसके द्वारा दिखलाया जाता है। पर यह ध्यातव्य है कि रूढ़ि के इस तरह के प्रयोग द्वारा कथा में वही चमत्कार उत्पन्न किया जाता है, जो कार्यसाधन के समय किया जाता है । इस कथानक रूढ़ि को कष्ट के समय नगर देवता की सहायता के लिए उपस्थित होने के रूप में भी किया गया है। अदृश्य शक्ति क्षेत्रपाल या रक्षपाल के रूप में भी प्रयुक्त होती हुई दिखलायी गयी है। ३---अतिमानवीय शक्ति और कार्यों से सम्बद्ध कथानक रूढियाँ। इस वर्ग में सात्विक प्रकृति के देवताओं और अलौकिक शक्तियों तथा कार्यों से सम्बद्ध कथानक रूढ़ियां या अभिप्राय आते हैं। भारतवर्ष प्राश्चर्य और रहस्य का देश इसमें देवी-देवताओं की कल्पना अनेक रूपों में की गयी है। अतः हरिभद्र जैसे श्रेष्ठ कथाकार ने इस कथानक रूढ़ि का प्रयोग निम्न प्रकार किया है:(१) कठिन कार्य के सम्पादन के निमित्त सहायक के रूप में देवतार्यो का अवतरित होना। (२) विशिष्ट अवसरों पर देव का प्रकट होकर कथा नायक अथवा नायिका के प्रण की परीक्षा लेना। १- समुप्पन्ना ममोवरि नयरदेवयाए अणुकम्पा। आवेसिऊण रायजणणिं साहियं जहढियमेव एवं तीए राइणो।-स० पृ० ११६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy