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________________ २६८ ४ -- व्यन्तर द्वारा विचित्र कार्य प्राकृत कथाओं में व्यन्तरों द्वारा विचित्र कार्य सम्पादन की कथानक रूढ़ि बहुलता से प्रयुक्त है । " उवासगदसाओ" की सभी कथाओं में प्रायः व्रती श्रावक की परीक्षा कोई तर नाना प्रकार की विचित्र और प्राश्चर्यजनक चेष्टात्रों के सम्पादन द्वारा करता है । " नाधम्मक हाथो" में भी व्यन्तर का निर्देश मिलता है । हरिभद्र ने सप्तमभव की कथा में चित्र निर्मित मयूर द्वारा व्यन्तर के प्रभाव से हार को निगलने और उगलने की बात कही है। यहां लेखक ने नायिका की परीक्षा लेने के लिए इस कथानक रूढ़ि का प्रयोग किया है । गुणचन्द्र को वाणमन्तर अनेक उपसर्ग देता है । उसके ये उपसर्ग मानवीय शक्ति के रूप में नहीं आये हैं, बल्कि अमानवीय शक्ति के रूप में व्यवहृत हैं। इस रूढ़ि द्वारा प्रधानतः निम्न कार्य निष्पन्न हुए हैं :-- ( १ ) नायिका को संकट में डालकर अद्भुत रूप से उसके सत्य की सिद्धि । (२) स्थिर और रुक-रुक कर प्रवाहित होने वाले कथाप्रवाह में आश्चर्य का मिश्रण कर उसे गतिशील बनाना । ( ३ ) चमत्कार उत्पन्न करना । ५ -- विद्याधरों द्वारा फल प्राप्ति के लिए नायक को सहयोग समुद्र तट पर विलासवती को जब विद्याधर अपनी विद्या के प्रभाव से अपहरण कर लेता है, तो दयालु विद्याधर सनत्कुमार की सहायता करते हैं । उनके द्वारा विलासवती का श्रन्वषण किया जाता है । विद्याओं की साधना द्वारा सनत्कुमार भी विद्याधरों जैसी शक्ति प्राप्त कर लेता है । वह असंभव और विचित्र कार्यों को करने की योग्यता प्राप्त करता है । विद्याधरों से उसका युद्ध और संधि होती है तथा उसे अपनी नायिका विलासवती की प्राप्ति हो जाती है । इस अभिप्राय का प्रयोग अधिकांश प्राकृत कथाओं में पाया जाता है। इस रूढ़ि के प्रयोग द्वारा कथा की दिशा ही बदल जाती है । कथा विपरीत दिशा से हटकर समानान्तर दिशा को प्राप्त होती है । नायक-नायिका मार्मिक वियोग दशा को पार करते हुए संयोग की ओर बढ़ते हैं । कथाकार घटनाओं की गति और स्थिति की योजना इतनी दक्षता से करता है, जिससे भावनाओं में पूरा तनाव उत्पन्न होता है । ६--- विद्याधरों का संसर्ग कथाकार नायक को कठिनाइयों में डालकर उसे किसी विद्याधर या अन्य किसी अमानवीय शक्ति के साथ सम्बद्ध दिखलाता है । निराशा और अत्यधिक विपन्नावस्था में नायक को देखकर प्रकृति भी विचलित हो जाती है । अमानवीय शक्तियों की भी नायक के साथ सहानुभूति उत्पन्न होने लगती है । पाठक जब यह समझते हैं कि उनके द्वारा श्रद्धापात्र नायक अब सदा के लिए अपना अस्तित्व विलीन कर रहा है, उस समय य े अद्भुत शक्तियां नायक के साथ सहानुभूति प्रकट करती हैं और नायक इन विद्याधरों क संसर्ग से अपनी प्रिया को प्राप्त करता है । विद्याधर और नाग जाति के व्यक्तियों १ स० प० ६११ । २-- अष्टभव की कथा में प्राद्यान्त श्रमानव और मानव संघर्ष । ३ - स०, पृ० ४३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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