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________________ २७० (३) अलौकिक और आश्चर्यजनक कार्य के सम्पादन के निमित्त देवी शक्ति को रूप में । ( ४ ) तीर्थ करों की महत्ता प्रकट करने के रूप में । (५) खल नायक बनकर नायक को तंग करने के रूप में । (६) दर्शन देकर नायक के महत्त्व साधनार्थ निजाभिप्राय निवेदनार्थ । (७) सत्य परीक्षा के रूप में । (८) उपासना द्वारा सन्तान प्राप्ति के रूप में । १ - - सहायतार्थ कठिन कार्यों का सृजन कथाकारों की यह शैली हैं कि वे नायक नायिका पर किसी भी प्रकार का कष्ट ने से किसी अलौकिक दिव्य शक्ति द्वारा उनकी सहायता दिखलाकर अपनी कथा में चमत्कार उत्पन्न करते हैं। पौराणिक, निजन्धरी तथा धार्मिक कथाओं में इस कथानक रूढ़ि का प्रयोग खूब हुआ है । हरिभद्र की लघुकथात्रों में यह कथानक रूढ़ि श्रनेक स्थलों पर उपलब्ध होती हैं । उपदेश पद में बताया गया है कि चाणक्य की सहायता से जब पाटलीपुत्र का राज्य प्राप्त हो गया तो चाणक्य को इस बात की चिन्ता हुई कि राज्य की शक्ति को मजबूत करने के लिए धन की श्रावश्यकता है । यह धन कहां से और कैसे प्राप्त किया जाय ? उनकी इस कठिनाई का समाधान एक देव की कृपा से हुआ। देव ने मायावी पाशे देकर चाणक्य को धनार्जन की युक्ति बतला दी। इस प्रकार की कथानक रूढ़ियों द्वारा यहां तीन कार्य सम्पन्न हुए हैं- (१) नायक की समस्या का हल हो जाने से कथा का फल प्राप्ति की ओर मुड़ जाना । (२) कथा में चमत्कार उत्पन्न करना । (३) दृष्टान्त के स्पष्टीकरण के लिए पृष्ठभूमि तैयार करना । इस कथानक रूढ़ि का हरिभद्र ने उपदेश पद की 5वीं गाथा' में थोड़ा सा घुमाव देकर भी उपयोग किया है । मानव जीवन की दुर्लभता बतलाने के लिए कौतूहल प्रिय किसी देव ने भरत क्षेत्र के समस्त अनाज में एक सरसों का दाना डाल दिया और उसने एक वृद्धा को उस अनाज में से सरसों का दाना निकालने के लिए नियत किया। बहुत प्रयास करने पर भी उस अनाज के ढेर में से उस सरसों के दाने का मिलना जिस प्रकार दुर्लभ है, उसी प्रकार मनुष्य जीवन की प्राप्ति। यहां भी इस कथानक रूढ़ि ने एक असंभव और कठिन कार्य का ही सृजन किया है, जिससे कथा में गति उत्पन्न हुई हैं । २ - कथानक के प्रण की परीक्षा सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र की सभा में किसी व्यक्तिविशेष के व्रतों की प्रशंसा की जाती हूँ । कोई ईर्ष्यालु देव उन प्रशंसात्मक बातों पर विश्वास नहीं करता और उसकी परीक्षा के लिए चल देता है। कठिनाइयों में डालकर नायक के व्रत का परीक्षण करता है । इस कथानक रूढ़ि का प्रयोग हरिभद्र ने भी अपनी लघुकथाओं में किया है। कथा में बताया गया है कि तगरा नगरी के रतिसार नाम के राजा का पुत्र भीमकुमार वृढ़ १ - - घण्णेत्ति भरह वस्से उप० पृ० २२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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