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________________ २४४ के रंग-विरंगे चित्र रहते हैं, तभी उस चित्रशाला का यथार्थ सौन्दर्य प्रकट होता है, उसी प्रकार कथाओं में जीवन के व्यापक और सर्वदेशीय चरित्रों का रहना नितान्त आवश्यक है। कर्म की गुत्थियों को सुलझाने के लिए यथार्थवादी-अनंगवती और प्रति यथार्थवादी धनश्री, लक्ष्मी और नयनावली के चरित्रों का चित्रण अत्यावश्यक है। जीवन के कुशल कलाकार हरिभद्र इन नारीचरित्रों की उपेक्षा नहीं कर सकते थे। - यथार्थ और अति-यथार्थवादी चरित्रों के अलावा प्रादर्श चरित्रों की भी कमी नहीं है। रत्नवती का चरित्र आदर्श भारतीय रमणी का चरित्र है, जिसके लिए पति ही सब कुछ है, पति के अभाव में वह एक क्षण भी जीवित नहीं रहना चाहती हैं। जब वानमन्तर अयोध्या में आकर यह असत्य प्रचार कर देता है कि कुमार गुणचन्द्र को विग्रह ने मार डाला है, तो वह मूछित हो जाती है। अपने श्वसुर मैत्रीबल को बुलाकर निवेदन करती है कि-"ह तात् ! मुझ दुर्भाग्यशालिनी को आप जानते ही हैं, अब मैं अपने आराध्य के बिना एक क्षण भी जीवित रहना नहीं चाहती हूं, अतः मैं अपने इन निर्लज्ज और निष्ठुर प्राणों को अग्नि में प्रवेश करके नष्ट कर देना चाहती हूं। आप आदेश दीजिए, जिससे मैं स्वर्ग में अपने पति के शीघ्र दर्शन कर सकूँ। मैत्रबल सान्त्वना देता है और कहता है कि यह असंभव बात है। गुणचन्द्र को परास्त करने की शक्ति विग्रह में नहीं है। अतः मैं तेज चलनेवाले दूतों को कुमार का कुशल समाचार लाने के लिए भेजता हूं। वह पुनः अपने श्वसुर से अनुरोध करती है कि पांच दिनों में यदि कुशल समाचार प्राप्त न होगा तो मैं अग्नि में प्रविष्ट हो जाऊंगी। हरिभद्र ने इस प्रकार रत्नवती के चरित्र का आदर्श और अनुकरणीय रूप उपस्थित किया है। भारतीय रमणी का शील ही सर्वोपरि गुण है, वह यहां पूर्णरूप से वर्तमान है । __नारी की मायाचारिता और उसके बुद्धिचमत्कार को खण्डपाना के चरित्र में गुम्फित कर हरिभद्र ने अपने चरित्रों की पूर्णता को व्यक्त किया है। खण्डपाना अपने बद्धि वैभव से पांच सौ धूर्तों को भोजन देती है। एक सेठ को ठगकर रत्नजटित अंगूठी प्राप्त करती है। उसकी बुद्धि के समक्ष सभी लोग झुक जाते हैं। उसके चरित्र को दृढ़ता भी अपने ढंग की है। इस प्रकार हरिभद्र ने शील के भोक्तत्व पक्ष का सुन्दर उद्घाटन किया है। यह कहना असंगत नहीं होगा कि हरिभद्र जो भी चरित्र जिस रूप में अंकित करना चाहते है, उसकी बीजावस्था का संकेत प्रारम्भ में ही कर देते हैं। चरित्रों में गत्यात्मकता की कमी अवश्य है, पर कई पात्रों में आध्यात्मिकता में कामुकता और कामुकता में आध्यात्मिकता का सम्मिश्रण कर चरित्र को सप्राण और स्वाभाविक बनाया है। ___हरिभद्र के शील में पाठकों के हृदय में मूलबन्धुत्व जागरित करने की क्षमता पूर्णरूप से वर्तमान है। मानवीय व्यापारों को नितान्त शुष्क या नीरस नहीं बनाया गया है। कर्म परवश मानव की सहस्रों प्रकार की लाचारी और हीनताओं को दिखलात हुए भी हरिभद्र ने शील का निर्माण जीवन की पद्धति पर किया है। इनके पात्रों का शील जड़ नहीं, चेतन है और है जीवन का सहोदर । एकाध स्थल पर व्यावहारिकता में बाधा पहुंचाने वाली रुग्ण भावुकता मिलती है, पर वह भी यथार्थवादी है। संक्षेप में भिन्न-भिन्न परिस्थितियों और भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाओं के बीच शील का विकास विखला कर हरिभद्र ने अपनी कला की उत्कृष्टता का प्रमाण उपस्थित किया है। हरिभद्र के शील निरूपण में निम्न विधियों का प्रयोग उपलब्ध होता है : १--विवरणात्मक या विश्लेषणात्मक विधि। २--अभिनयात्मक। ३--संकेतात्मक। ४--मनोविकारोद्योतात्मक। १--स., .० ८१४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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