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________________ २४३ सरल स्वभावी शिखीकुमार विश्वास कर लेता है और गुरु प्रादेश लेकर कौशाम्बी बला धाता हूँ। अपनी सफाई दिखलाने तथा विश्वास उत्पन्न करने के लिए जालिना faatकुमार से श्राविका के व्रत ग्रहण कर लेती है । वह शिखीकुमार के पास श्रा- जाकर आत्मीयता बढ़ाती है । उसे भोजन के लिए श्रामन्त्रण देती है, पर श्रमण-धर्म के विपरीत होने के कारण शिखीकुमार स्वीकार नहीं करता । एक दिन प्रातःकाल ही तालपुट विष सम्मिश्रित लड्डू तैयार कर शिखीकुमार के पास जाती है और मायाचार खिलाकर उस मुनिकुमार को उन विषैले लड्डुनों को खिलाकर चिर समाधि में लीन कर देने का पुण्यार्जन प्राप्त करती है। नारी का यह जघन्य मातृत्व बहुत ही भयावना श्रौर घिनौना है। माता का यह शील अनूठा हैं, विरल हैं और है नारीत्व का कलंक । यह प्रति यथार्थवादी चरित्र है । जीवन में हिंसा, क्रोध, मान और माया को प्रधानता देने वाले व्यक्ति इसी स्तर के होते हैं । सामाजिक सम्बन्धों का निर्वाह उनसे सम्भव ही नहीं होता है । हरिभद्र ने इस कुत्सित चरित्र को भी अभिनयात्मक शैली में कथोपकथनों द्वारा चित्रित किया है । यह सत्य है कि जालिनी के शील में कथानक अनुकूलता गुण वर्त्तमान है । कथानक का झुकाव और विस्तार पुनर्जन्म के संस्कारों पर अवलम्बित हैं । अतः इस चरित्र में विरोधाभास नहीं हैं । जालिनी जंसी यथार्थनामवाली माता के सहयोग के fart कषाय-विकारों का वास्तविक रूप उद्घाटित नहीं हो सकता था । धनश्री और लक्ष्मी दोनों ही मनचली पत्नियां हैं। दोनों ही अपने पतियों से घृणा करती हैं । रूप- गुण, स्वभाव एक-सा होते हुए भी दोनों में अन्तर है। दोनों क्रूर हृदया हैं, निष्ठुरता की मूर्ति हैं, पति को धोखा देना और उसे विपत्ति में फंसा देना दोनों के लिए मनोविनोद की वस्तु है । विलास और उच्छृंखल जीवन व्यतीत करना दोनों का लक्ष्य है । इतनी समता होते हुए भी दोनों में विभिन्नता यह है कि धनश्री यौन-सम्बन्ध में उतनी शिथिल नहीं है, जितनी लक्ष्मी । लक्ष्मी में कामुकता और विलास वासना उद्धारूप में विद्यमान है । जो भी युवक उसके सम्पर्क में श्राता है, वह उसीसे वासनात्मक सम्बन्ध स्थापित कर लेती हैं। लगता यह है कि वह अत्यन्त अतृप्त है, उसकी यौन क्षुधा बड़ी तीव्र है । उसका पति के विरोध का कारण भी यही मालूम होता है । धनश्री भी अपने पति धन से प्रेम न कर नन्दक नामक दास से प्रेम करती हैं और उसीसे अपना अनुचित सम्बन्ध बनाये रखने के लिए पति को विरोधिनी बन जाती है । अद्भुत स्थिति है, नारी का यह तितलीवाला शील भारतीय श्रादर्श नहीं हो सकता है । हरिभद्र ने यथार्थवाद के अनुसार इन समस्त स्त्रीपात्रों के अन्त को शुद्ध करने के लिए सारी गन्दगी को निकाल बाहर किया है । भीतर की गन्दगी की अपेक्षा बाहर की गन्दगी अच्छी है । अतः हरिभद्र ने चरित्रों के ऊपर लीपापोती नहीं की हैं, बल्कि उनके यथार्थरूप को, जैसा उन्होंने समाज में देखा - समझा है, चित्रित कर दिया है । चरित्र स्थापत्य की दृष्टि से हरिभद्र ने जर्जर समाज की मान्यताओं के विपरीत अपना नारा बुलन्द किया हैं । लोक निन्दा और परिवार विरोध की चिन्ता भी इन्हें नहीं है । धनश्री और लक्ष्मी जैसी भौतिकवादी नारियों की समाज में कभी कमी नहीं रही हैं । इन दोनों नारियों के लम्बे जीवन में अनेक धार्मिक और राजनैतिक प्रसंग उपस्थित हुए हैं, पर इनके ऊपर उनका कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा है। पतियों के ऊपर विपत्ति और मौत के गर्जत हुए बादलों को देखकर भी ये करुणा से नहीं पसीजतीं। लगता है कि प्रति यथार्थवादी ठोरता ने इन्हें इतना अधिक प्रभिभूत कर लिया है, जिससे इनकी सहानुभूति और सहृदयता नष्ट हो गयी है । भौतिक समस्याओंों का नंगा नाच देखना ही इन्हें सम्ब हैं । . हरिभद्र को कर्म संस्कारों और निदान के धौव्य को नियतिवादी शैली में दिखलाना हूँ । यतः लक्ष्मी और धनभी के चरित्रों के जीते-जागते चित्रों के प्रभाव में उनका मध्य ही पूरा नहीं हो सकता था। जिस प्रकार अप-टू-छेट चित्रशाला में सभी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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