SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४५ षष्ठ प्रकरण लोककथा - तत्त्व और कथानक रूढ़ियां । १- लोककथा-तत्त्व यों तो हरिभद्र की प्राकृत कथाएं धर्म-कथाएं हैं, पर इनमें लोककथा के तत्त्व भी पर्याप्त मात्रा में समाहित हैं । वास्तविकता यह है कि इन कथाओं में ऐसे सभी प्राचीन विश्वासों, प्रथाओं और परम्पराओं का संपूर्ण योग विद्यमान है, जो सभ्य समाज के प्रशिक्षित या अल्पशिक्षित लोगों के बीच आज भी प्रचलित हैं । इसकी परिधि में बुद्धिचमत्कार, लोकानुश्रुतियां, पुराणगाथाएं, अन्धविश्वास, लोकविश्वास, उत्सव, रीतियां, परम्परागत मनोरंजन, कला-कौशल, लोक नृत्य आदि सभी बातें सम्मिलित हैं । लोकवार्त्ता की विवेचना करते हुए डा० सत्येन्द्र ने लिखा है कि- "यह एक जाति बोधक शब्द की भांति प्रतिष्ठित हो गया है, जिसके अन्तर्गत पिछड़ी जातियों में प्रचलित प्रथवा अपेक्षाकृत समुन्नत जातियों के प्रसंस्कृत समुदायों में अवशिष्ट विश्वास, रीति-रिवाज, कहानियां, गीत तथा कहावतें आती हैं । प्रकृति के चेतन तथा जड़ जगत के सम्बन्ध में मानव स्वभाव तथा मनुष्य कृत पदार्थों के सम्बन्ध में, भूत-प्रेतों की दुनिया तथा उसके साथ मनुष्यों के सम्बन्धों के विषय में, जादू टोना, सम्मोहन, वशीकरण, ताबीज, भाग्य, शकुन, रोग तथा मृत्यु के सम्बन्ध में आदिम तथा असभ्य विश्वास इसके क्षेत्र में प्रत हैं । और भी इसमें विवाह, उत्तराधिकार, बाल्यकाल तथा प्रौढ़ जीवन के रीति-रिवाज तथा अनुष्ठान और त्योहार, युद्ध, आखेट, पशुपालन आदि विषयों के भी रीति-रिवाज और अनुष्ठान इसमें सम्मिलित हैं" । " कथाओं में लोकमानस की सहज और स्वाभाविक अभिव्यक्ति का रहना ही लोककथातत्त्व है । कथाकार जो कुछ कहता-सुनता है, उसे समूह की वाणी बनाकर और समूह में घुल मिलकर ही । यही कारण है कि लोककथाओं में लोकसंस्कृति का वास्तविक प्रतिबिम्ब रहता है । जो कथाएं लोक चित्त से सीधे उत्पन्न होकर सवसाधारण को प्रान्दोलित, चालित और प्रभावित करती हैं और जनता की बोली में लिखी जाती हैं, वे लोककथाओं के पद पर आसीन होने की अधिकारिणी हैं । लोकचेतना का साहित्य अपनी मूल प्रेरणा लोकमानस से ग्रहण करता है, किन्तु उसका ऊपरी ढांचा साहित्य की शास्त्रीय मार्मिकताओं पर श्राश्रित होता है । लोककथाएं मानवजाति की आदिम परम्परात्रों, प्रथाओं और उसके विभिन्न प्रकार के विश्वासों का वास्तविक प्रतिनिधित्व करती हैं । सारे विश्व में लोककथाओं का रूप प्रायः एक जैसा ही पाया जाता है और विषय वस्तु तथा कथनशैली की दृष्टि से इनमें समान रूढ़ियों और समान अभिप्रायों का ही उपयोग हुआ है । लौकिक सौन्दर्य बोध, लोकचिन्ता की एकरूपता और सामान्य अभिव्यंजना प्रणाली विश्व की लोककथानों में समान रूप से उपलब्ध है । Jain Education International हरिभद्र ने अपनी प्राकृत कथाओं को लोकभाषा में लिखा है । अतः इनकी कथाों में लोककथा के लोकधर्म, लोकचित्र और लोकभाषा ये तीनों ही तत्त्व विद्यमान हैं । इन्होंने कथानों में आडम्बरपूर्ण यज्ञ-यागादि अनुष्ठानों का निराकरण कर लोक मानस का स्पर्श करने वाले लोकधर्म का स्वरूप वर्णित किया है । इनकी प्राकृत कथाओं में मध्य युग के दलित और मध्यम इन दोनों वर्गों के तत्कालीन रीति-रिवाज, विश्वास, १ - ब्रजलोक साहित्य का अध्ययन, पृ० ४ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy