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________________ सुन्दर मिश्रण करता है। प्राकृत कथा-साहित्य में इस स्थापत्य का बहुत प्रयोग हुआ है। प्रायः सभी कथा-ग्रन्थों में अतीत और वर्तमान इन दोनों की घटनाएं अंकित हैं। विगत जन्म-जन्मान्तरों की घटनाओं का निरूपण करने के लिये कथाकार को बहत सतर्क रहना पड़ता है। उसे इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि यह कथाजाल इतना सधन न हो जाय, जिससे पाठक नीरसता का अनुभव करने लगे। मात्रभाषा में ही वर्तमान और भूतकालीन क्रियाओं का प्रयोग नहीं होता है, किन्तु घटनाओं में वस्तुचित्रण भी भूतकालीन किया जाता है। वही सतर्क कथाकार रस-वर्णन कर सकता है, जो इस कला में पूर्ण दक्ष रहता है। केवल जन्म-जन्मान्तरों की गणना करा देना स्थापत्य नहीं है। रोचकता और कुतूहल का सम्वर्द्धन करते हुए घटनाओं का मार्जारावतरण या घटावतरण दिखलाना इस स्थापत्य में अत्यावश्यक है। एकाएक कुछ नयी घटनाएं और नयी समस्याएं उपस्थित हो जाएं, जो पाठक को केवल चमत्कृत ही न करें, किन्तु उसे जीवनोत्थान के लिये प्रेरणा भी प्रदान करें। पहले से चली आई हुई घटनाएं अकस्मात् इस प्रकार रूपान्तरित हो जायें, जिससे नवीन घटनाओं या आख्यानों का एक नया रूप ही दृष्टिगोचर हो। तरंगवती कथा में इस कालमिश्रण स्थापत्य का प्रयोग बहुत ही सुन्दर हुआ है। तरंगवती का आमोद-प्रमोदमय जीवन, जिसका संबंध वर्तमान के साथ है, जो उद्यान में विविध प्रकार के पुष्पों का अवलोकन करती हुई जीवन का वास्तविक रस ले रही है। इसी अवसर पर हंसमिथुन को देखकर उसे अतीत का स्मरण हो आता है और वह वर्तमान आमोद-प्रमोदों को छोड़ अपने प्रेमी की तलाश में निकल पड़ती है। यहां कालमिश्रण का प्रयोग मार्जारावतरण द्वारा बड़े ही सुन्दर ढंग से हुआ है। महावीरचरित में नमिचन्द्र ने तीनों कालों का मिश्रण किया है। भगवान महावीर का पौराणिक आख्यान मारीच से लेकर भविष्य में होने वाले जन्मों का वर्णन ऋषभदेव के मुंह से कराया है। कालमिश्रण का प्रयोग अवश्य है, पर कथासाहित्य के लिये उपादेय पद्धति का अवलम्बन इसमें नहीं है। घटनाओं का चमत्कार और उसमें कथारस की बहुलता का प्रायः अभाव है। समराइच्चकहा और कुवलयमाला में भी कालमिश्रण स्थापत्य वर्तमान है। ४। कथोत्थप्ररोह शिल्प--प्याज के छिलकों के समान अथवा केले के स्तम्भ की परत के समान जहां एक कथा से दूसरी कथा और दूसरी कथा से तीसरी कथा निकलती जाय तथा वट के प्रारोह के समान शाखा पर शाखा फूटती जाय, वहां इस शिल्प को माना जाता है। इस स्थापत्य का प्रयोग यों तो समस्त प्राकृत कथा साहित्य में हुआ है, पर विशेष रूप से वसुदेव हिण्डी, समराइच्चकहा, कुवलयमाला और लीलावईकहा में उपलब्ध है। वसुदेवहिंडी में एक वसुदेव का भ्रमण-वृत्तान्त ही नहीं है, किन्तु इसमें अनेक ऐसी कथाएं हैं, जिनका जाल पाठकों का केवल मनोरंजन ही नहीं करता, बल्कि उन्हें लोक संस्कृति के बीच उपस्थित करता है। इस स्थापत्य में कथाकार को अपनी वर्णन शैली को सहज ग्राह य और प्रभावशाली बनाना पड़ता है। इसका प्रधान कारण यह है कि इस स्थापत्य की कथाओं में पाठक को अधिक कल्पनाशील और संवेदनशील होना पड़ता है। उसे कथासूत्र को स्मृति और बुद्धि द्वारा जोड़ना पड़ता है। इस प्रकार के शिल्प का एक बड़ा दोष यह रहता है कि घटनाजाल को सघनता के कारण चरित्र विश्लेषण का अवसर लेखक को नहीं मिल पाता। फलतः जिस स्थल पर एकान्त रूप से इस स्थापत्य का प्रयोग किया जाता है, वहां कथा के पूरे तस्व निखर नहीं पाते। सारभूत सत्य जीवन की घटनाओं के उचित स्थापत्य के ढांचे में भावों, अनुभूतियों और आशाओं को सजीव तथा साकार रूप में प्रस्तुत करता है। जो कथाकार इस कला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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