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________________ १२५ है, जिससे कयाजाल लम्बे मैदान में लुढ़कतो हुई कुटबाल के समाज तेजी से बढ़ता हआ में वितान के समान आच्छादित हो जाता है। उसका प्रकाश देहली दीपक के समान पूर्ववर्ती और पश्चात्वतॊ दोनों ही प्रकार की घटनाओं पर पड़ता है और समस्त घटनाजाल आलोकित हो जाता है। उपर्युक्त स्थापत्य का प्रयोग समस्त प्राकृत कथा साहित्य में हुआ है। कोई विशिष्ट ज्ञानी या केवली पधारता है। उसकी धर्मदेशना सनने के लिये नायक अथव पहुंचते हैं। धर्मदेशना सुनते ही जातिस्मरण स्वतः अथवा केवली द्वारा भवावलो वर्णन सुनकर हो जाता है। कथा का सूत्र यहां से दूसरी ओर मुड़ जाता है, नायक अपने कर्तव्य की वास्तविकता को समझ जाता है और वह अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिये बद्धकटि हो जाता है। कहीं-कहीं ऐसा भी खा जाता है कि कोई घटना विशेष ही पूर्व भवावली का स्मरण करा देती है। उदाहरण के लिये “रयणसे हरनिव कहा" को लिया जा सकता है, इसमें किन्नर मिथुन के वार्तालाप को सुनकर हो रत्नशखर को अपने पूर्व जन्म की प्रिया रत्नवतो का स्मरण हुआ और उसकी प्राप्ति के लिए उसने प्रयास किया । तरंगवती, जो सबसे प्राचीन प्राकृत कथा है, उसमें बताया गया है कि कौशाम्बी नगरी के सेठ ऋषभदेव की पुत्री तरंगवती शरद् ऋतु में वनविहार के लिये गई और वहां हंसमियन या चक्रवाक मियन को देखकर उसे अपने पूर्व जन्म का स्मरण हो आया और वह अपने पूर्वजन्म के हंसपति को प्राप्त करने के लिये चल दी। इन दोनों स्थलों पर इस स्थापत्य का बहुत ही सुन्दर प्रयोग हुआ है। कथा की गति और दिशा दोनों में एक विचित्र प्रकार का मोड़ उत्पन्न हो गया है। ऐसा लगता है कि जब कथाकार इस बात का अनुभव करता है कि कथा में जड़ता या स्तब्धता आ रही है, तो वह अपने पात्रों की मानसिक स्थिति में परिवर्तन लाने के लिये पूर्वदीप्ति प्रणाली का उपयोग करता है। पात्रों के स्मृतिपटल पर अतीत और वर्तमान की समस्त घटनाओं को वह अंकित कर देता है। अतीत का अस्तित्व वर्तमान से ओत-प्रोत रहता है, उसमें नवीन स्पन्दन और जीवन के नये-नये रंग समाहित रहते हैं। प्राकृत कथाओं में इस स्थापत्य का व्यवहार दो प्रकार से मिलता है। एक तो पूर्णरूप से, जहां इसे कथा के आरम्भ में ही उपस्थित किया जाता है और अन्त तक मूलकथा के साथ इसका निर्वाह होता रहता है। यह पद्धति चरितग्रन्थों और रयणसेहरनिव कहा जैसे कथा ग्रन्थों में अपनायी गयी है। दूसरा अंश रूप में उपलब्ध होता है। इसके अनुसार कथा के आरम्भ या भध्य में सहसा किसी पात्र की स्मृति जागृत हो उठती है और वह कुछ समय के लिये अतीत में खोने लगता है। इस प्रकार के स्थापत्य का प्रयोग कुवलयमाला में होता है । कुल्लयचन्द्र को पूर्व घटनाएं अवगत हो जाती है और वह उन निर्देशों के अनुसार कुवलयमाला को प्राप्त करने चला जाता है। कुवलयमाला को भी अपने अतीत की सारी स्मृति हो आती है। इस स्थल पर प्रथम और द्वितीय का मिश्रित रूप दृष्टिगोचर होता है। ३। कालमिश्रण--कथाकार कथाओं में रोचकता की वृद्धि के लिये भूत, वर्तमान और भविष्यत् इन तीनों कालों का तथा कहीं के वल भूत और वर्तमान इन दोनों कालों का १--रायावि रयणवई नाम मंतमिव सुणित्ता हरिसवसविसप्पमाण---माणसो इइ चितं करे ई--------। रय० पृ० ६।। २--महुअरिरुवएहि जोयइव हसविरुएहि। नेव्व इव वायपयलियाय . . . . . गाहोहिं ॥....दठूग वच्चवे विवतेहिं चक्काए तहिं करिणी। सरिऊण . पुन्वजाई सोएण मुच्छिया . . . . . ॥ सं० त० पृ० १७-१८, गा० ५८--६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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