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________________ १२७ सक्ष्म से अनभिज्ञ है, वह मात्र इस स्थापत्य के प्रयोग द्वारा कथातत्त्वों का विकास नहीं कर पाता है। जमघट रूप में उपस्थित कथाओं की एकरसता को दर करने के लि कलाभिज्ञता के साथ व्यापक और उदात्त जीवन का दृष्टिकोण भी अपेक्षित है। समराइच्चकहा में इस स्थापत्य का व्यवहार बड़ी कुशलता के साथ किया गया है। वट-प्रारोह के समान उपस्थित कथाओं में संकेतात्मकता और प्रतीकात्मकता की योजना सुन्दर हुई है। परिवेशों या परिवेश-मण्डलों का नियोजन भी जीवन और जगत के विस्तार को नायक और खलनायक के चरित्रगठन के रूप में समेटे हुए है। रचना में सम्पूर्ण इतिवृत्त को इस प्रकार सुविचारित ढंग से विभक्त किया गया है कि प्रत्येक खंड अथवा परिच्छेद अपने परिवेश में प्रायः पूर्ण-सा प्रतीत होता है और कथा की समष्टि योजना-प्रभाव को उत्कर्षोन्मुख करती है। एक देश और काल की परिमिति के भीतर और कुछ परिस्थितियों को संगति में मानव जीवन के तथ्यों की अभिव्यंजना इस कृति में की गयी है। जिस प्रकार वृत्त को कई अंशों में विभाजित किया जाता है और उन अंशों की पूरी परिधि में वृत्त को समग्रता प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार कथोत्थप्ररोह के आधार पर इतिवृत्त को सारी गतिविधि प्रकट हो जाती है। इस स्थापत्य का कलापूर्ण प्रयोग वहीं माना जाता है, जहां कथासूत्रों को एक ही खूटी पर टांग दिया जाता है। इस कथन की चरितार्थता समराइच्चकहा और कुवलयमाला में पूर्णतया उपलब्ध हैं। कुवलयमाला में क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह का प्रतिफल शित करने वाली पांच कथाएं तथा इन पांचों के फल भी वक्ताओं के जन्म-जन्मान्तर की कथाएं बड़े कौशल के साथ प्रन्थित की गई है। कथोत्थप्ररोह शिल्प का प्रयोग प्राकृत कथा साहित्य में मात्र किस्सागोई का सूचक नहीं है, अपितु जीवन के शाश्वतिक तथ्य और सत्यों की अभिव्यंजना करता है। ५। सोद्देश्यता--प्राकृत कथाएं सोद्देश्य लिखी गई है। प्रत्येक कथाकार ने किसी विशेष दृष्टिकोण का सहारा लिया है और उसके आधार पर मानव-जीवन का मूल्यांकन करते हुए अपने जीवनदर्शन का स्पष्टीकरण किया है। इन्होंने मनुष्य के जीवन के विविध पहलुओं को गहराई से देखने-परखने की चेष्टा की है,। मात्र मनोरंजन करना इन कथाओं का ध्येय नहीं है । इनके शिल्प या स्थापत्य में केवल स्त्री-पुरुषों के संबंध, उनके कारण और प्रवृत्तियां ही नहीं है, किन्तु विभिन्न मनोविकार एवं जीवन के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण आदि बातें भी शामिल हैं। उद्देश्य या जीवनदर्शन के अभाव में कथातन्त्र चित्रकार के उस चित्र के समान है, जिसने अपने चित्र को टाट के टुकड़े पर अंकित किया हो। समुचित आधार फलक के अभाव में जिस प्रकार चित्र रम्य और प्रभावोत्पादक नहीं हो सकता है, चित्रकार की चित्रपटुता एवं उसका श्रम प्रायः निरर्थक ही रहता है, इसी प्रकार उद्देश्य-हीनता के अभाव में कथा मात्र मनोरंजन का आधार बनती है। यद्यपि यह सत्य है कि कथाकार दार्शनिक नहीं है, जीवन और जगत की बडी-बडी समस्याओं का समाधान करना उसका काम नहीं है, तो भी वह सक्षम संवेदन, भावनाएं, मनोविकार आदि के विश्लेषण द्वारा जीवन को संजीवनी बूटी प्रदान करता है, जिससे मानव अजर-अमर पद प्राप्त कर सकता है। जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों का विश्लेषण कर शुभ कर्म करने के लिये प्रेरित किया जाता है। _इस स्थापत्य द्वारा कथा का सम्पूर्ण प्रसार एक निश्चित फल की ओर अनुधावित होता है। फलप्राप्ति की ओर अधिक झुकाव रहने के कारण इन कथाओं में फलनिर्देश का वही महत्व रहता है, जिस प्रकार संगीत रचना में टेक का। टेक को बार-बार दुहराए बिना गीत का माधुर्य प्रकट नहीं हो सकता है, सह दय के ह.दय में टेक का अनुरणन एकाधिक बार होता है। वह बार-बार गुनगुनाता है, रसास्वादन लेता है। इसी प्रकार प्राकृत कथाओं में भक्ति, प्रीति, ज्ञान, वैराग्य और शील की धारा प्रवाहित होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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