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________________ 88 तरह किनारे लगा। कटाहद्वीप के रत्नपुर नगर में पहुंचकर उसने राजकुमारी चन्द्रलेखा के साथ विवाह किया। अनन्तर वह चन्द्रलेखा के साथ जहाज में बैठकर अपनी पूर्वपत्नी सोमश्री को खोज में निकला। साथ में रत्नपुर नरेश ने अपने अथर्वण नाम के मन्त्री को महिपाल की देखरेख के लिए भेजा। राजपुत्री और धन के लोभ में आकर अथर्वण ने महिपाल को समुद्र में धक्का दे दिया। राजपुत्री चन्द्रलेखा बहुत दुःखी हुई और वह चक्रेश्वरी देवी की उपासना करने में लीन हो गयी। इधर महिपाल समुद्र पार कर एक नगर में आया और यहां जितशत्रु राजा की पुत्री शशिप्रभा से उसका विवाह हो गया। शशिप्रभा से वह खट्वा, लकुट और सर्वकामित विद्याएं सीखता है। अनन्तर महिपाल रत्नसंचयपुर नगर में आता है और यहां चक्रेश्वरी देवी के मन्दिर में उसे अपनी तीनों स्त्रियां मिल जाती है। नगर का राजा महिपाल को सर्वगण सम्पन्न समझ कर अपना मन्त्री निर्वाचित करता है और अपनी पुत्री चन्द्रश्री के साथ उसका विवाह भी कर देता है। महिपाल अपनी चारों स्त्रियों के साथ उज्जैन चला आता है और नरसिंह राजा के यहां रहने लगता है। अनन्तर धर्मघोष मुनि से क्रोध, मान, माया, और लोभ के सम्बन्ध में कथाएं सुनकर पूर्णतया विरक्त हो जाता है और श्रमण दीक्षा धारण कर उग्र तपस्या करता है और अन्त में निर्वाण-पद प्राप्त करता है। समीक्षा यह कथा सरस है। कथानक के निर्माण में देव तथा संयोग की उपस्थिति दिखलाकर कथाक, र ले अनेक तात्कालिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बातों पर प्रकाश डाला है। यद्यपि कथाकार न प्रारम्भ और अवसान में कोई प्रमुख चमत्कार नहीं दिखलाया है, तो भी चरित्र-निर्माण में घटनाओं को पर्याप्त गतिशील बनाया है। इसमें सामन्त, राजा, सेठ, मन्त्री, प्रभति कोटि के व्यक्तियों के चरित्र, उनके छल-कपट, प्रेम के विभिन्न पक्ष, मध्य वर्गीय संवेदनाएं और कुंठाएं सुन्दर अभिव्यक्त हुई हैं। चरित्र-चित्रण में अभिनयात्मक और विश्लेषणात्मक शैलियों का मिश्रित प्रयोग किया गया है । इसमें मानवीय मनोवेग, भावावेश, विचार, भावना, उद्देश्य, प्रयोजन प्रादि का सुन्दर प्राकलन हुया है । अथर्वण जब जहाज पर से महिपाल को धक्का देता है, उस समय को उसकी अन्तःस्थिति अध्ययनीय है। महिपाल के स्वभाव और प्रकृति के अनुसार ही सारी घटनाएं प्रसूत होती है। उसके चरित्र को स्वाभाविकता और वास्तविकता प्रदान करने के लिए ही लेखक ने देशकाल और वातावरण का निर्माण किया है। उज्जी छोड़कर बाहर जाना, समद्र यात्रा में विपत्ति एवं तापसी आश्रम में जाकर तापसी दीक्षा आदि बातें ऐसी हैं, जिनके द्वारा महिपाल के चरित्र का विकास दिखलायी पड़ता है। चन्द्रलेखा का प्रत्युत्पन्नमतित्व और अपनी शीलरक्षा के लिए उसका कपट-प्रेम ऐसे स्थल है, जो मानव जीवन में एक नयी दिशा और स्फूति प्रदान करते हैं। चण्डीपूजा, शासनदेवता की भक्ति, यक्ष और कुलदेवी की पूजा, भतों को बलि, जिनभवन का निर्माण, केवलज्ञान के समय देवों द्वारा पुष्पवर्षा एवं विभिन्न कलाओं का विवेचन पठनीय है। एक सामन्त कुमार की यह साहसपूर्ण कथा है। कथा का मूल स्रोत बहुत प्राचीन है, लेखक ने पौराणिक आख्यानों से कथावस्तु लेकर एक नयी कथा का प्रणयन किया है। अवान्तर कथाओं में लोभ के दोष का निरूपण करने के लिए नन्द सेठ की कथा बहुत सुन्दर है। इसमें "लोहविमूढ़ा जीवा किच्चाकिच्चं पिन हु वियारंति"--लोभी व्यक्ति को कार्याकार्य का विवेक नहीं रहता है, इस सिद्धान्त का बड़ा सुन्दर विश्लेषण किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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