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________________ "जं वाविय विसरुक्खो विसफल चेव पावेई"--"विष वृक्ष का रोपण कर विष फल ही प्राप्त होते हैं अमृत फल नहीं", उक्तियों द्वारा अवान्तर कथा की शिक्षा स्पष्ट की गयी है। हरिभद्र की समराइच्चकहा के सप्तम भव से चित्रमयूर द्वारा हार के भक्ष्य का पाख्यान ज्यों के त्यों रूप में ग्रहण किया गया है। लोकोक्तियों को इसमें भरमार है। इनका ऐसा सुन्दर प्रयोग अन्यत्र नहीं हुआ है । कुछ लोकोक्तियां तो अत्यन्त हृदयस्पर्शी है। "खीणो वि ससी रिद्धि पुणो वि पावइ न तारापो"--क्षीण चन्द्रमा ही समृद्धि को प्राप्त होता है, तारागण नहीं, ववसायपायवेसु पुरिसाण लच्छी--सया वसई" व्यापार में ही लक्ष्मी का निवास है, एवं "न होणसत्ताण सिज्जए विज्जा"--निर्बल व्यक्ति को विद्या नहीं पा सकती। इस प्रकार लेखक ने भाषा को सशक्त और मुहावरेदार बनाया है। उपमा और रूपक भी पर्याप्त सुन्दर है। पाइअकहासंगहो पद्मचन्द्रसूरि के किसी अज्ञात नामवाले शिष्य ने "विक्कमसेणचरियं" नामक प्राकृत कथा ग्रंथ की रचना की है । इस कथा प्रबन्ध में पायी हुई चौदह कथाओं में से इस संग्रह में बारह प्राकृत कथाएं संग्रहीत हैं। इन कथाओं के रचयिता और समय आदि के सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी नहीं है । इस कथा संग्रह की एक प्रति वि० सं० १३९८ की लिखी हुई उपलब्ध हुई है, अतः मूल ग्रंथकार इससे पहले ही हुआ होगा। इस संग्रह में दान, शील, तप, भावना, सम्यक्त्व, नवकार, एवं अनित्यता आदि से सम्बन्ध रखने वाली सरस कथाएं हैं। ___ इस संग्रह में दान के महत्व को प्रकट करने के लिए धनदेव-धनदत्त कथानक, सम्यक्त्व का प्रभाव बतलाने के लिए धनश्रेष्ठि कथानक, दान के विषय में चंडगोवकथानक, दान देने में कृपणता दिखलाने के लिए कृपण श्रेष्ठिकथानक, शील का प्रभाव लिए जयलक्ष्मी देवी कथानक और सन्दरिदेवी कथानक, नमस्कार मंत्र का फल अभिव्यक्त करने के लिए सौभाग्य सुन्दर कथानक, तप का महत्त्व बतलाने के लिए मृगांकरखा कथानक और घट कथानक, भावना का प्रभाव व्यंजित करने के लिए धर्मदत्त और बहुबुद्धि कथानक एवं अनित्यता के सम्बन्ध में समुद्रदत्त कथानक आया है । समीक्षा इन लघुकाय कथाओं में नामावली का अनुप्रास बहुत ही सुन्दर पाया है। कवि ने नामों की परम्परा में नादतत्त्व की सुन्दर योजना की है। उदाहरणार्थ निम्न नामावली उपस्थित की जाती है :-- धणउरमत्थि पुरवरं धणुद्धरो नाम तत्थ भूवालो। सेट्ठी धणाभिहाणो धणदेवी भारिया तस्स ॥ धणचंदो धणपालो धणदेवो धणगिरी इमे चउरो । संजाया ताण सुया गंभीरा चउसमुद्दव्व । धंधी-धामी-प्रणदा-धणसिरि नामाउ ताण अहकमसो। जायानो भज्जानो निच्चं नेहेण जुत्तायो । -- सम्यक्त्वप्रभावे धनधेष्ठि कथानक, पृष्ठ ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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