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________________ ह लेखक ने इन प्रासंगिक कथाओं को मूल कथा के साथ गूंथने की पूरी चेष्टा की हूँ । मूल कथावस्तु भी सावयव है । प्रत्येक घटना एक दूसरी से अंगों के रूप में सम्बद्ध है । घटनाएं भी निर्हेतुक नहीं घटती हैं, बल्कि उनके पीछे तर्क का आधार रहता है । राजा के प्रोषध उपवास के दिन ऋतुस्नाता रत्नवती पुत्र की इच्छा से उसके पास आती है, राजा अपने ब्रह्मचर्य व्रत में अटल है । रानी को राजा के इस व्यवहार से बहुत निराशा होती है और कुपित हो एक दास के साथ भाग जाती है । अन्तःपुर के कोलाहल को सुनकर राजकर्मचारी और राजा सभी रानी का पीछा करते हैं। रानी कहती है - " रयणीए मह भणित्रं न कयं, ता महकयं विलोएसु" इतना कह सामने से श्रदृश्य हो जाती है । राजा जंगल में उसका पीछा करने पर भी रानी को नहीं प्राप्त करता है । वह सोचते हुए कुछ दूर चलता है कि "ताव न श्ररण्णं, न तं बंयण जुलं पिच्छ - राया, किन्तु निय- श्रावासे रयणमय-सिंहासण ं० - रयणवइपहदेवी सुंजु अप्पाणं पासइ । तो किमेयं इदंजालं जायं ? किवां सच्चं ?" न उसे रत्नवती मिलती है और न वह जंगल ही बल्कि वह अपने को रत्नमयी सिंहासन पर महारानी रत्नवती सहित दरवार में बैठा पाता है, तब वह सोचता है कि क्या यह इन्द्रजाल है ? या सत्य है ? इस समय मृतात्मा मतिसागर अदृश्य शक्ति के रूप में उसकी परीक्षा की बात कहकर भ्रम दूर कर देता है । कथा के इस स्थल पर चरम परिणति अवश्य है, किन्तु लेखक पुरातन रूढ़िगत परम्परा का त्याग नहीं कर सका है । अतः आधुनिक पाठक इन घटनाओं पर विश्वास नहीं कर पाता और न वह इन देवी चमत्कारों को प्राप्त ही कर पाता है । आरम्भ से कथा को गति ठीक उपन्यास के समान चलती रही हैं, पर चरम परिणति दैवी चमत्कारों में दिखलायी गयी है । यह कथा सरस और परिमार्जित शैली में लिखी गयी है । गद्य और पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है । महिवालकहा महिपाल कथा के रचयिता वीरदेव गणि हैं । इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से अवगत होता है कि देवभद्र सूरि चन्द्रगच्छ हुए थे । इनके शिष्य सिद्धसेन सूरि और सिद्धसेन सूरि के शिष्य मुनिचन्द्र सूरि हुए और उनके शिष्य वीरदेव गणि । विन्टरनित्स ने एक महीपाल चरित का भी उल्लेख किया है, जिसके रचयिता चरित्र सुन्दर बतलाये हैं । इसका रचनाकाल १५वीं सदी का मध्य भाग हैं । परी कथा और निजन्धरी इन दोनों का यह मिश्रित रूप है । प्रस्तुत कथा ग्रन्थ भाषाशैली के आधार पर चौदहवीं पन्द्रवीं सदी का प्रतीत होता है । पद्यों पर पूर्णतया आधुनिक छाप है । उज्जैनी नगरी के राजा नरसिंह के यहां कलाविचक्षण महिपाल नाम का राजपुत्र रहता था । राजा न े रुष्ट होकर महिपाल को अपने राज्य से निकाल दिया । वह अपनी पत्नी के साथ घूमता-फिरता भड़ौच में प्राया और वहां से जहाज में सवार होकर कटाह द्वीप की ओर चला । रास्ते में जहाज भग्न हो गया और बड़ी कठिनाई से वह किसी 1 - Indian Litera ure, Vol. IT page 536. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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