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________________ समाधिमग्ण गर्भावस्था के दौरान वह हर समय इस बात को जानने के लिए बेचैन रहती थी कि उसके गर्भ में पल रहे शिशु का लिंग क्या है? क्या वह पुरुष लिंग का है या स्त्री लिंग का? बहुत समय तक वह अपने मन पर संयम किये रही। लेकिन कुछ समय के बाद वह अपने मन पर संयम नहीं रख सकी और अपनी जिज्ञासा की शान्ति के लिये एक तेज धारदार हथियार की सहायता से अपने गर्भ को काट डाला। परिणामस्वरूप पायासी की भी मृत्यू हो गयी तथा उसके गर्भ में पल रहे शिशु की भी। यद्यपि आत्ममरण का यह उदाहरण समाधिमरण से किसी तरह भी सम्बन्धित नहीं है, परन्तु मात्र जिज्ञासा शान्ति के लिए ऐसा किया गया था । औरत के मन में और किसी तरह की भावना नहीं थी। जहाँ नक जिज्ञासा शान्ति की बात है तो उसके लिए आत्ममरण करना अनिवार्य नहीं है। सम्भवतः पायासी ने भी आत्ममरण करने के लिए गर्भ को नहीं काटा था, बल्कि अपने मन में उत्पन्न हए कौतुहल की शान्ति के लिए ही उसने ऐसा किया होगा, अत: उसका यह आत्ममगण आत्ममरण नहीं कहलाएगा, परन्तु यह समाधिमरण के सापेक्ष भी नहीं है। अत: प्यासी द्वारा किए गए इस आत्ममरण को जिज्ञासावश किया गया आत्ममरण कह सकते हैं। थेरीगाथा में भी आत्ममरण के बहत से उदाहरण मिलते हैं। इस ग्रन्थ के अनुसार सिंहा बहुत वर्षों से साधना कर रही थी। लेकिन अभी तक उसे दिव्यज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई थी। बहुत समय के बाद (सात साल बाद) उसने अपने मन में यह विचार किया कि मैं इस पापी जीवन से तंग आ गयी हूँ और इससे छुटकारा पाने के लिए अब मैं इसका अंत कर दूंगी। इस भावना के वशीभूत होकर उसने रस्सी के फंदे का फांस अपने गले में बांध लिया तथा मरने का उपक्रम करने लगी। लेकिन ज्यों ही वह झुलकर मरने को तैयार हुई उसी समय उसे दिव्यज्ञान की प्राप्ति हो गयी और उसने मरने का यह विचार त्याग दिया।९ सिंहा का यह आत्ममरण समाधिमरण से तुलनीय नहीं है, क्योंकि समाधिभरण में जहाँ देहत्याग मात्र निर्वाण प्राप्ति के लिए किया जाता है, वही थेरीगाथा के इस उदाहरण में सिंहा द्वारा किया जा रहा आत्ममरण का प्रयास उसकी अपनी असफलता के कारण ही था। लेकिन दिव्यज्ञान की प्राप्ति हो जाने के बाद उसने आत्ममरण नहीं किया। इसका मुख्य कारण यही रहा होगा कि वह यह समझने लगी होगी कि आत्महत्या दिव्यज्ञान प्राप्ति का उपाय नहीं है। बौद्ध ग्रन्थों में वक्कलि, आनन्द आदि नाम बार-बार प्रयुक्त किये गए हैं। सम्भवतः इस बारे में दो विचार हो सकते हैं। प्रथम विचार के अनुसार ये नाम एक ही व्यक्ति के हों तथा दूसरे मत के अनुसार सम्भव है यह भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के नाम हों। सत्यता जो भी हो, यहाँ मेरे लिए यह समस्या नहीं है कि यह नाम एक ही व्यक्ति के थे या भिन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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