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________________ १९६ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन अनेक प्रसंग आते हैं। आचारांग में स्पष्ट निर्देश है कि वैद्य चिकित्सा के लिए अनेक जीवों का छेदन-भेदन और प्राण-घात करता है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि हिंसा और परिग्रह के दोष से पूर्णतया बचने के लिये ही मुनि को चिकित्सा करवाने का निषेध किया गया है।१५० आचारांग के द्वितीय श्रुतकन्ध में भी ऐसा ही विवेचन मिलता है। वस्तुतः यह परिग्रहासक्ति ही सबसे बड़ा बन्धन है। संसार के सभी प्राणियों को इस परिग्रह रूप बन्धन ने जकड़ रखा है। इससे बढ़कर अन्य कोई बन्धन नहीं है। आचारांग का कथन है कि धन-धान्य, भूमि और घर आदि में ममत्व रखने वाले व्यक्तियों को विपुल समृद्धिपूर्ण जीवन प्रिय होता है। वे रंग-विरंगे, मणि, कुण्डल, हिरण्य तथा स्त्रियों का संग्रह कर उनमें अनुरक्त रहते हैं। उन परिग्रही धनेप्सु व्यक्तियों के जीवन में न कोई तपत्याग होता है न यम-नियम अथवा संयम ही होता है और न मानसिक शान्ति ही होती है । वह अज्ञानी पुरुष ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीने की कामना करता है तथा बार-बार सुख की कामना करता हुआ अन्ततः मूढ़ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है ।१५' इस प्रकार वह परिग्रही व्यक्ति जीवन जीने हेतु द्विपद ( कर्मकर), चतुष्पद (पशु) का संग्रह कर उनका उपयोग करता है। उनके द्वारा यह अर्थ का संवर्धन करता है । अपने, पराये अथवा दोनों के सम्मिलित प्रयास से उसके पास कम अथवा ज्यादा अर्थ की मात्रा एकत्र हो जाती है । वह उस अर्थ-राशि में आसक्त रहता है और भोग के लिए उसका संरक्षण करता है तथा भोग के बाद शेष पर्याप्त धन-राशि से महान उपकरण (सम्पत्ति) वाला बन जाता है। किन्तु एक समय ऐसा आता है कि जब सारी सम्पत्ति नष्ट हो जाती है, उस संरक्षित एवं अजित धन-राशि या परिग्रह में से दायाद हिस्सा बँटा लेते हैं या चोर अपहरण कर लेते हैं या शासक छीन लेते हैं या वह नष्ट हो जाती है, अथवा फिर गृह दाह से जल जाती है। इस तरह वह परिग्रही व्यक्ति दूसरों के लिए हिंसादि क्रूर कर्म करता हुआ दुःख का निर्माण करता है और अन्ततोगत्वा दुःखी रहता है अर्थात् चतुर्गति रूप संसार में अनन्तकाल तक परिभ्रमण करता रहता है। १५२ उत्तराध्ययन में भी इस धन-लिप्सा की निन्दा की गई है । १५3 सूत्रकार का स्पष्ट कथन है कि परिग्रह का त्याग नहीं करने वाला व्यक्ति क्रन्दन करता है।१५४ तात्पर्य यह कि 'अर्थेप्सु' व्यक्ति (परिग्रही) धन प्राप्त न होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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