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________________ पंचमहाव्रतों का नैतिक दर्शन : १९७ पर पहले उसे पाने की लालसा में क्रन्दन करता है और नष्ट होने पर बाद में उसके शोक से रोता है । इसी प्रकार बृहदारण्यकोपनिषद् १५५ और मनुस्मृति १५० में भी कहा है कि संन्यासी को अपने पास कोई परिग्रह नहीं रखना चाहिए । अपरिग्रह व्रत को निर्दोष बनाए रखने के लिए पाँच भावनाएँ बतायी गयी हैं - (१) मुनि को श्रोत्रेन्द्रिय सम्बन्धी शब्द के प्रति राग-द्वेष नहीं करना चाहिए, (२) चक्षुरिन्द्रिय सम्बन्धी रूप के प्रति राग-द्वेष नहीं करना चाहिए, (३) घ्राणेन्द्रिय विषय सम्बन्धी गंध के प्रति अनासक्त रहना चाहिए, (४) रसनेन्द्रिय सम्बन्धी स्वाद के विषय में लोलुप नहीं रहना चाहिए और (५) स्पर्शेन्द्रिय सम्बन्धी विषय के प्रति राग-द्वेष नहीं रखना चाहिए । १५७ जब साधक उक्त पाँच भावनाओं का पालन करता है तभी उसका अपरिग्रहव्रत निर्दोष, सात्त्विक, स्वच्छ रह सकता है | । परिग्रह वृत्ति के कारण ही आज सारा जगत् अशान्त है, प्रत्येक मनुष्य दुःखी एवं अतृप्त है । ऐसी विषम एवं अशान्त परिस्थिति में यदि यह अपरिग्रह वृत्ति सामूहिक रूप से जीवन में आ जाय तो अर्थ वैषम्यजति सारी सामाजिक समस्याएँ स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं । उन्हें हल करने के लिए साम्यवाद, समाजवाद अथवा अन्य किसी नवीनवाद की आवश्यकता नहीं रह जाती है। इतना ही नहीं, इससे मनुष्य का स्वयं का जीवन भी क्रमशः उच्चता की ओर बढ़ता है । साथ ही सामाजिक समस्याएँ भी सुलझ जाती हैं और मनुष्य तथ्यतः विश्वशान्ति की संस्थापना में भी सक्षम हो सकता है । महाव्रतों की महत्ता एवं उपादेयता : अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँचों महाव्रत नैतिक जीवन के शाश्वत तत्त्व हैं । काल एवं देश की सीमा का भी इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । ये मानवीय नैतिकता के मूलभूत सिद्धान्त हैं । नैतिक ह्रास के इस युग में भी पाँचों महाव्रत सामाजिक जीवन के लिए विशेष महत्त्वपूर्ण हैं तथा मानव के चारित्रिक विकास के लिए भी आवश्यक हैं । आचारांग में कहा है-अनन्त जीवों के रक्षास्पद ( रक्षारूप पर ) पाँचों महाव्रत महापुरुषों द्वारा आचरित होने के कारण महागुरु कहे गये हैं तथा ये दीर्घ काल से आत्मा के साथ लगे हुए कर्म - बन्धन से मुक्त करने वाले हैं । जिस प्रकार तेज ( प्रकाश ) तीनों दिशाओं के अन्धकार को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार महाव्रत रूप तेज कर्म - समूह रूप अन्धकार को नष्ट कर देता है । १५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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