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________________ पंचमहाव्रतों का नैतिक दर्शन : १९५ अपरिग्रह महावत: संसार के समस्त प्राणी सुख-प्राप्ति के लिए सतत् प्रयत्नशील हैं, फिर भी सुख नहीं मिल रहा हैं । सोचना होगा कि आखिर दुःख का मूल कहाँ है ? गहराई से सोचने पर विदित होता है कि दुःख का मूल परिग्रह ही है । व्यक्ति परिग्रह एकत्र करने के लिए हिंसा, झूठ, चोरी, छल-कपट आदि निकृष्टतम कृत्यों को भी करने में नहीं सकुचाता है। आचारांग में स्पष्ट रूप से कहा है कि धनेप्सु या अर्थ-लोभी व्यक्ति परिग्रह की पूर्ति हेतु दूसरों का वध करता है, उन्हें कष्ट देता है तथा अनेक प्रकार से यातनाएँ पहुँचाता है । १४॥ यहाँ तक कि वह धन-प्राप्ति के लिये चोर, लुटेरा और संहारक तक बन जाता है ।१४७ अतएव यह संग्रहवृत्ति या धन-लिप्सा ही सभी पापों का मूल है, और यही सब अनर्थों की खान है। वास्तव में इस आणविक युग में यह संग्रह प्रवृत्ति ही चारों और उथल-पुथल मचा रही है। बाइबिल में संग्रह वृत्ति की कड़ी आलोचना करते हुए कहा गया है कि सूई की नोक में से ऊँट कदाचित् निकल जाय, परन्तु धनवान व्यक्ति स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर सकता है। आचारांग में तो अपरिग्रह विषयक गहरी विवेचना मिलती है। निर्ग्रन्थ साधक जीवन पर्यन्त सजीव अथवा निर्जीव, अल्प या बहुत स्थल या सूक्ष्म किसी भी प्रकार की वस्तु को स्वयं संग्रह नहीं करता है, दूसरों से संग्रह नहीं करवाता है और न संग्रह करने वाले का अनुमोदन करता है। इस प्रकार कृत-कारित-अनुमोदित तथा मन-वाणी और कर्म से परिग्रह के पाप से अपनो आत्मा को सर्वथा विरत रखना ही अपरिग्रह व्रत है ।१४० साधु परिग्रह मात्र का त्यागी होता है। वह पूर्ण अनासक्त और निर्ममत्व होता है । संयम की साधना के लिए उसे जिन उपकरणों की अनिवार्य रूप से आवश्यकता होती है, उन पर भी उसका ममत्व नहीं होता । इसी बात को दृष्टि में रखते हुए कहा है कि जो ममत्व बुद्धि का त्याग करता है, वही ममत्व का भो त्याग करता है। सच्चा साधक वही है जिसे किसी भी प्रकार का ममत्व नहीं है। वही मुक्ति पथ का द्रष्टा है।४९ इतना ही नहीं, शरीर का ममत्व भी परिग्रह माना गया है और अपरिग्रही मुनि उसके प्रति भी निर्ममत्व होता है। जिसने शरीर का ममत्व विसर्जित कर दिया है, वह चिकित्सा की भी अपेक्षा नहीं रखता अर्थात् वह शरीर में जो कुछ घटित होता है,उसे होने देता है और कर्म का प्रतिफल मानकर सब कुछ सह लेता है, किन्तु हिंसा प्रधान चिकित्सा का सहारा नहीं लेता, क्योंकि चिकित्सा में हिंसा के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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