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________________ पंचमहाव्रतों का नैतिक दर्शन : १८५ साधुओं की सेवा करने और करवाने पर विशेष बल दिया गया है । ४ आचारांग के अनुसार सेवा ( वैयावृत्य ) में परोपकार और कर्म- निर्जरा दोनों ही दृष्टियाँ निहित हैं । मन वचन और काया से सेवा करने, कराने एवं अनुमोदन करने वाले साधक के सहज ही तप हो जाता है, क्योंकि त्याग के बिना सेवा सम्भव नहीं है और उससे उसके कर्मों की निर्जरा होती है । सेवाभाव से साधक की साधना में तेजस्विता आती है और उसकी साधना अन्तर्मुखी होती जाती है । इसीलिए कहा जाता है कि सेवा से बढ़कर अन्य कोई धर्म नहीं है । उत्तराध्ययन" ओघ नियुक्ति " एवं आवश्यक हरिभद्रीय वृत्ति" में भी कहा गया है कि हे गौतम! जो ग्लान की सेवा (परिचर्या) कर रहा है, वह मेरी ही उपासना कर रहा है | इतना ही नहीं, सेवा से तो तीर्थंकर पद प्राप्त होता है ।" ९० इस तरह, आचारांग में पारस्परिक सहयोग एवं सेवा भाव का उच्च आदर्श प्रतिपादित है । उसमें एक स्थान पर यह भी निर्देश है कि मुनि को बिना किसी छल-कपट के स्वार्थं या स्वाद वृत्तियों से ऊपर उठकर रुग्ण साधु की परिचर्या करनी चाहिए ।" इसी प्रकार अपने स्वधर्मी छोटे बड़े साधुओं में परस्पर वात्सल्य भाव बना रहे, इस दृष्टि से यह भी निर्देश है कि भिक्षु गोचरी में जो भी आहार लाये उसे अपने स्थान पर आकर उपस्थित गुरुजनों को दिखाए। उनकी आज्ञा प्राप्त हो जाने के बाद बिना किसी छलछद्म के परस्पर प्रेमभाव से अपने सभी सहयोगी भिक्षुओं को समान रूप से दे दे । ९° इतना ही नहीं, आचारांग में आगे बढ़कर यह भी कहा गया है कि यदि किसी गृहस्थ ने भिक्षु समूह को लक्ष्य करके भिक्षा प्रदान की हो तो भिक्षु का यह कर्तव्य है कि वह अन्य मतावलम्बी भिक्षुओं में बिना किसी भेद भाव के प्राप्त भिक्षा का समवितरण करे अथवा उनके साथ बैठकर उसका उपभोग कर लेवे । ऐसा न करे कि स्वयं अच्छा भाग ले लेवे और दूसरों को खराब या कम भाग देवे । ११ दशकालिक में तो यहाँ तक कहा गया है कि जो व्यक्ति प्राप्तसामग्री का सम-विभाग नहीं करता है, वह मुक्ति-लाभ नहीं कर सकता है । १२ इससे हमें आचारांग ( जैनधर्मं ) के व्यापक एवं उदारवादी दृष्टिकोण का स्पष्ट परिचय मिल जाता है । आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में अहिंसा के विधेय तत्त्व को स्पष्ट करते हुए यह भी कहा गया है कि यद्यपि भिक्षु को अपने संयम निर्वाह के आवश्यक सामग्री समाज से ग्रहण करनी पड़ती है, परन्तु वह समाज से जो कुछ भी ग्रहण करता है, उसमें भी दूसरों के हितों एवं सुविधाओं का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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