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________________ १८४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन हो होता है ।७९ वास्तव में, श्रमण-जीवन बड़ा करुणाशील होता है। लोक-करुणा की भावना उसमें कूट-कूट कर भरी होती है। आचारांग में स्पष्ट निर्देश है कि निष्पक्षपाती सम्यग्दर्शी मुनि लोगों को सन्मार्ग दिखाएँ आचारांगकार अहिंसा के विधि पक्ष के रूप में दया की अवधारणा को प्रस्तुत करता है। १ 'दया मूले धम्मो' दया धर्म का मूल है। यह तो निश्चित' है कि दयाहीन व्यक्ति पूर्णरूप से अहिंसा की साधना नहीं कर सकता। इस सन्दर्भ में, गाँधी जी का स्पष्ट कथन है 'जहाँ दया नहीं, वहाँ अहिंसा नहीं' । २ आचारांग में अहिंसा के विधि पक्ष के रूप में वैयावत्य (सेवा) की अवधारणा पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। सेवा भी अहिंसा का विधेय रूप ही है और जीवन का एक महान गुण है। सेवामय जीवन एक साधना है । सेवा आभ्यन्तर तप है। वैयावृत्य ( सेवा ) में मुख्यतया अपनी अहंवृत्ति और वैयक्तिक सुख-सुविधाओं का सर्वथा विसर्जन करना पड़ता है। बिना उसके वास्तविक सेवा नहीं हो सकती है । मनुष्य कठोरतम प कर सकता है, इन्द्रिय-निग्रह कर सकता है, किन्तु वैयावृत्य ( सेवा ) करना सहज नहीं है। इसीलिए कहा गया है कि 'सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः' । सेवा तभी सम्भव है जब दूसरों के कष्ट हमारे अपने कष्ट बन जाँय । जब आत्मवत दृष्टि जागृत होती है तब अनुकम्पा या करुणा की धारा प्रस्फुटित होती है और व्यक्ति सेवा के लिए दौड़ा जाता है । सेवा से जीवन विराट बनता है। आचारांग में अस्वस्थ अवस्था में भिक्षुओं को परस्पर सेवा करने का निर्देश हैं, परन्तु यह अदीन भाव से या स्वेच्छा से होनी चाहिए। सेवा के लिए भिक्षु न तो किसी पर दबाव डालता है और न अनुरोध हो करता है। सूत्रकार कहता है कि किसी भिक्षु को यह संकल्प होता है कि मैं अस्वस्थ अवस्था में किसी भो मुनि को सेवा के लिए नहीं कहँगा, किन्तु यदि कोई स्वस्थ मुनि अपनी कर्मनिर्जरा के उद्देश्य से सेवा करेगा तो मैं उसे स्वीकार करूंगा तथा उसके द्वारा की जाने वाली सेवा का अनुमोदन भी करूंगा। इसी तरह मैं भी यथा समय कर्म-निर्जरा के उद्देश्य से अपने साधार्मिक साधुओं की सेवा करूंगा। 3 उपर्युक्त सूत्र में रोगी और निरोग साधुओं की पारस्परिक सेवा सम्बन्धी विकल्प बताए गए हैं । इसी प्रकार प्रथम श्रतस्कन्ध के अष्टम अध्ययन के सप्तम उद्देशक में भी सेवा के विभिन्न विकल्प वर्णित हैं, परन्तु वहाँ विशेष यह है कि यथा प्राप्त आहारों में से मात्र निर्जरा के उद्देश्य तथा परस्पर उपकार की दृष्टि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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