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________________ १८६ : आचाराङ्ग का नोतिशास्त्रीय अध्ययन पूरा ध्यान रखता है जिससे कि किसी भी जीव को कोई कष्ट न पहुँच पाए और न उनकी जीविकावृत्ति में कोई बाधा उत्पन्न हो। आचारांग में कहा है कि यदि गहस्थ के द्वार पर शाक्यादि भिक्षु, ब्राह्मण, याचक, अतिथि आदि कोई भी खड़े हों तो उन्हें लांघकर साधु को गृहस्थ के घर में प्रविष्ट नहीं होना चाहिए । १3 क्योंकि ऐसा करने से उन भिक्षुओं की वृत्ति में बाधा ( अन्तराय ) पड़ेगी, जो कि हिंसा का कारण है। उसमें न केवल अन्य भिक्षुओं का अपितु पशु-पक्षी जगत् तक का ख्याल रखा गया है। कहने का आशय यह है कि पूर्ण अहिंसक मुनि को ऐसा कोई भी आचरण या प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए, जो दूसरे प्राणियों के लिए कष्ट का कारण बने। अहिंसा की नैतिक एवं मनोवैज्ञानिक आधारभूमि : मल प्रश्न यह है कि अहिंसा का पालन क्यों किया जाय? आचारांग में इसका उत्तर बहुत ही मनोवैज्ञानिक ढंग से दिया गया है कि सभी जीव जोना चाहते हैं, सभी को अपना जीवन प्रिय है और मृत्यु अप्रिय है।५४ संसार के प्रत्येक प्राणो के भीतर एक जिजीविषा है, अपना अस्तित्व बनाए रखने की कामना है-'सव्वे पाणा पिवाउआ सुहसाया दुक्ख पडिकूला' अर्थात् सभी को अपने प्राण प्रिय हैं, सभी जीव सुख चाहते हैं और दुःख से घबराते हैं।९५ यही जीवनाकांक्षा अहिंसा का मूल है। ___ अहिंसा का हार्द्र है कि व्यक्ति अपनी चेतना के समान दूसरों की चेतना को समझे। अहिंसा का साधक विश्व की समस्त आत्माओं को समदृष्टि से देखता है। चैतन्य मात्र के प्रति समतापूर्ण व्यवहार करता है। विश्व के समस्त प्राणियों के बीच समतुल्यता को संस्थापना करते हए आचारांग में कहा है कि जो अपनी सुख-दुःखात्मक वृत्तियों अथवा पोड़ा को जान लेता है, वह दूसरों की वृत्तियों या पोड़ा को भी जान लेता है।१६ । जैसे-मुझे सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, वैसे ही दूसरे जीवों को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है। इस आत्म-तुला के परिबोध से प्रत्युत्पन्न संवेदना ही अहिंसा की आधारभूमि है। विश्व की समस्त आत्माओं को आत्मवत् समझना ही वास्तव में अहिंसा की सच्ची साधना है। यही बात गोता में इन शब्दों में कही गयी है कि जो सभी जीवों को अपने समान देखता है और उनके सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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