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________________ पंचमहाव्रतों का नैतिक दर्शन : १८१ आचारांग के अनुसार कृत-कारित अनुमोदित तथा मन, वचन और काया से किसी भी परिस्थिति में सूक्ष्म या बादर, त्रस एवं स्थावर किसी भी जीव का जीवन भर प्राण-घात नहीं करना, दूसरों से नहीं करवाना और करने वाले का समर्थन नहीं करना ही अहिंसाव्रत है। अहिंसा का शब्दश: अर्थ होता है - हिंसा नहीं करना। चूँकि अहिंसा के साथ निषेध वाचक 'अ' : ब्द जुड़ा हुआ है । इससे सामान्यत: ऐसा प्रतीत होता है कि वह केवल निषेधात्मक ही है और यही कारण है कि जन-सामान्य द्वारा अहिंसा का अर्थ निवृत्तिपरक मान लिया गया। अतएव अहिंसा की विवेचना करते समय यह जान लेना भी नितान्त आवश्यक है कि क्या अहिंसा कोरी निषेध रूप ही है अथवा उसका कोई विधेयात्मक स्वरूप भी है ? किसी जोव की अहिंसा नहीं करना यह तो अहिंसा का केवल पहलू है और वह भी निषेध रूप हैं । अहिंसा की धारा मात्र यहीं तक अवरुद्ध नहीं है । वह निषेध (निवृत्ति) की भूमिका पर विधि ( प्रवृत्ति) का रूप लेकर आगे बढ़ती है । (आचारांग के विचार से अहिसा न तो एकान्त निषेधपरक है और न एकान्त विधिपरक ही है । अचारांग में जहाँ अहिंसा प्राणिमात्र के प्रति आत्मवत दृष्टि के आधार पर सामाजिक न्याय की संस्थापिका है वहीं सबके प्रति दया, करुणा, मैत्री, रक्षा, सेवा आदि का सन्देश भी देती है । 'प्राणिमात्र को आत्मतुल्य समझना' और 'किसी को पीड़ा नहीं पहुँचाना' – इन दो सूत्रों के द्वारा आचारांग अहिंसा के विधेयात्मक और निषेधात्मक दोनों पक्षों को प्रस्तुत करता है । 'नाइवाएज्जा किंचण ७० यह निवृत्तिरूप अहिंसा है । आचारांग में प्रवृत्ति रूप अहिंसा का भी विधान हुआ है । संयम में जो सत्प्रवृत्ति है, वही अहिंसा का विधि रूप है । अहिंसा के क्षेत्र में आत्मलक्षी क्रियाओं का विधान है और संसार लक्षीक्रियाओं का निषेध है ।) - आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में श्रमण जीवन के लिये पाँच मूल गुणों (महाव्रतों) का विधान किया गया है। ये महाव्रत श्रमण के समग्र आचार के आधार स्तम्भ हैं । अतः इनके पूर्णतया पालन करने की दृष्टि से उनकी पच्चीस भावनाओं का विवेचन भो है, अर्थात् श्रमण जीवन के उत्तर गुणों में चारित्र के सन्दर्भ में समिति और तीन गुप्ति की मर्यादाओं का विधान है ( समिति की मर्यादाएँ (विधि) प्रवृत्तिमूलक होती हैं और गुप्ति की मर्यादाएँ (निषेध) निवृत्ति मूलक हैं ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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