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________________ १८० : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन यद्यपि आचारांग में परवर्ती जैन ग्रन्थों द्वारा मान्य हिंसा के सभी प्रकार तो उपलब्ध नहीं होते हैं तथापि उसमें बहुचित षड्जीवनिकायपृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय की हिंसा को छः प्रकार या स्तर के रूप में रख सकते हैं। हिंसा के परिणाम : __ आचारांग का कर्म-फल के सम्बन्ध में अटूट विश्वास है। उसके अनुसार प्रत्येक कर्म का फल अवश्य ही मिलता है। वह कहता है कि हिंसात्मक कर्म के भी परिणाम होते हैं। आचारांग में स्पष्ट रूप से कहा है कि 'आरम्भजं दुक्ख'६१ अर्थात् संसार के जितने भी दुःख ( बन्धन ) हैं, वे सब ( आरम्भ ) हिंसा से ही उत्पन्न होते हैं। विविध प्रकार की कामनाओं से प्रत्युत्पन्न हिंसा संसार की समस्त पीड़ाओं की जननी है। अतः आचारांग में हिंसा के फल के सम्बन्ध में कहा गया है कि पृथ्वी कायिक आदि के आरम्भ-समारम्भ में संलग्न अहितकारी व्यक्ति की हिंसा-वृत्ति भविष्य के लिए है। वह हिंसा उसकी अबोधि अर्थात् ज्ञानबोधि, दर्शन-बोधि एवं चारित्र-बोधि की अनुपलब्धि में कारणभूत होती है । हिंसा के फल से अनभिज्ञ व्यक्ति स्वयं अपने लिये नरक तिर्यंन्चादि गति का निर्माण करता है तथा विभिन्न नारकीय दुःखों की सृष्टि करता है। जो संयमी साधक है, वह हिंसा के दुष्परिणाम को सम्यक् रूप से समझ कर संयम-साधना में तत्पर हो जाता है। उसे सम्यक् रूपेण यह ज्ञात हो जाता है कि 'हिंसा' ग्रन्थि अर्थात् बन्धन है, मृत्यु है और नरक है । ६२ यहाँ हिंसा को इसी दृष्टि से नरक कहा गया है कि नरकगति के योग्य कर्मोपार्जन का सबसे प्रबल कारण है। इतना ही नहीं, वह नरक ही है । हिंसक व्यक्ति की मनोदशा भी नरक की भाँति कर एवं अशुभतर होती है। साथ ही वह कृत्यों के द्वारा इस संसार में ही नारकीय जीवन की सृष्टि कर लेता है। सूत्रकृतांग, प्रश्नव्याकरण, निरयावलिका६५, उत्तराध्ययन ६, प्रवचनसार, मूलाचार आदि ग्रन्थों में भी हिंसा के परिणामों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। अहिंसा महाव्रत परिभाषा एवं स्वरूप : (जहाँ पर कल्याण हेतु अहिंसा की साधना अपेक्षित है, वहीं स्वकल्याण के लिए भी वह कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसलिए आचारांग में मन, वाणी और काया से अहिंसा की साधना का आह्वान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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