SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ : आचाराङ्ग का नोतिशास्त्रीय अध्ययन के सन्देहों से ही प्रारम्भ होती है। संसार और मोक्ष के यथार्थ स्वरू पका परिज्ञाता ( अनुभवी) ही ज्ञेय का ज्ञान और हेय का परित्यागकर सकता है । इसीलिए आचारांगकार को यह कहना पड़ा कि संशय से ही संसार के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होता है। संसार का अर्थ है-जन्ममरण की परम्परा । जब तक मन में यह जिज्ञासा नहीं होती है कि वह सुखद है या दुःखद, तब तक उसका क्रम चलता रहेगा । जब उसके प्रति सन्देहात्मक जिज्ञासा उत्पन्न होगी तभी व्यक्ति ज्ञ-परिज्ञा से संसार की निःसारता का यथार्थबोध कर अर्थात् संसार और संसार के हेतुभूत मिथ्यात्व, अविरति आदि को जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से निवृत्त हो सकता है। जिसे संसार के स्वरूप के प्रति संशयात्मक जिज्ञासा ही नहीं होती, उसे संसार की असारता का यथार्थबोध या ज्ञान ही नहीं होता । फलतः संसार से उनकी निवृत्ति भी नहीं हो सकती है ।१६ संसार का प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्मात्मक है। उस अनन्त का ज्ञान अनन्त ही कर सकता है। इसका आशय यही है कि जिसने किसी एक वस्तु को सम्पूर्ण रूप से जान लिया है, वह अन्य सभी वस्तुओं को सम्पूर्ण रूप से जान सकता है। आचारांगकार ने एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त प्रस्तुत किया है-'जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ,। जो एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको जानता है वह एक को जानता है। विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों के अनन्त गुणधर्मों और उसके अनन्तपर्यायों को पूर्णरूप से जानने का सामर्थ्य केवलज्ञान के सिवा किसी भी ज्ञान में नहीं है। अतः केवलज्ञान, ज्ञान का पूर्ण विकास है, वह अनन्त है। इसीलिए उसमें अनन्त को जानने की शक्ति है । उस शक्ति की पूर्ण अभिव्यक्ति ही मनुष्य जीवन का अन्तिम साध्य है। इस आत्मा में अनन्त ज्ञान और शक्ति स्वभाव से ही विद्यमान है, क्योंकि वह आत्मा का स्वरूप है। ज्ञान के अभाव में आत्मा की कल्पना करना सम्भव नहीं है। ज्ञान ही आत्मा है और आत्मा ही ज्ञान है। आचारांग में स्पष्टतः निर्देशित है कि जो आत्मा है, वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वह आत्मा है। इस प्रकार तत्त्वतः आत्मा और ज्ञान में कोई भेद नहीं है। ज्ञान के द्वारा वस्तु का यथार्थ स्वरूप अर्थात् जड़ चेतन का भेद स्पष्ट हो जाता है। जैनधर्म में मूलतः दो तत्त्व (पदार्थ ) माने गये हैं-चेतन (जीव) और अचेतन ( अजीव ) जगत् के सभी (रूपी-अरूपी ) पदार्थ इन दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy