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________________ आचारांग का मुक्तिमार्ग : १६१ लिए 'मइ', 'सुय', 'आगम', 'णाण', 'विण्णाणे', 'णाणी', 'पण्णा', 'पण्णाण', 'परिणा', 'विण्णाया' आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। अनेक स्थलों पर 'जाणइ-पासइ' शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं और यह आचारांग का अति प्राचीनतम रूप है। इससे 'दर्शन' और 'ज्ञान' दोनों का निर्देश मिलता है। अतः स्पष्ट है कि ज्ञान-सम्बन्धी विवेचन परिभाषाबद्ध रूप में नहीं है, किन्तु सर्व साधारण के व्यवहारों के अनुकूल है। इसी से आचारांग की प्राचीनता स्वतः सिद्ध है। संभवतः इन्हीं विचारों के आधार पर धीरे-धीरे ज्ञान का स्वरूप, प्रकार आदि परिभाषाबद्ध, व्यवस्थित रूप में विकसित एवं सुस्थिर होते गये। सत्य प्राप्ति को खोज का प्रथम चरण-सन्देह ( जिज्ञासा ): आचारांग में सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिए सन्देह ( संशय ) पर बल दिया गया है। सूत्रकार कहता है कि जो संशय को जानता है वह सम्यक्तया संसार के स्वरूप को जान लेता है-ज्ञेय का ज्ञान और हेय का परित्याग कर देता है और जो संशय को नहीं जानता है वह संसार के स्वरूप को नहीं जानता है।५ संशयात्मक ज्ञान से ही संसार के स्वरूप का ज्ञान होता है। जब तक किसी पदार्थ के सम्बन्ध में संशय नहीं होता, तब तक उसके सम्बन्ध में ज्ञान के नये-नये उन्मेष नहीं खुलते हैं। आचारांग के अनुसार संशय का तात्पर्य है-वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानने की इच्छा ( जिज्ञासा वृत्ति ) और यह जिज्ञासामूलक सन्देह मनुष्य के ज्ञान की अभिवृद्धि का बहुत बड़ा कारण है। संशय ( जिज्ञासा) दर्शन का मूल है। जिनके मन में संशय या जिज्ञासा नहीं होती, वह सत्य को प्राप्त नहीं कर सकता। इससे यह स्पष्ट है कि आचारांग संशय को सत्य की उपलब्धि का एक महत्त्वपूर्ण चरण मानता है। इस सन्दर्भ में 'न संशयमारुह्य नरो भद्राणि पश्यति' यह नीतिसूत्र आचारांग की भाँति जिज्ञासा प्रधान संशय का समर्थन करता है। इतना ही नहीं, पाश्चात्य दार्शनिक भी दर्शन का आरम्भ आश्चर्य या जिज्ञासा से मानते हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी यह जिज्ञासा-पद्धति ( संशय पद्धति ) काफी कुछ उपयोगी प्रतीत होती है। टीकाकार शीलांकाचार्य का कथन है कि यह संशय या जिज्ञासा दो प्रकार की होती है-एक अर्थगत और दूसरी अनर्थगत । मोक्ष एवं मोक्ष के उपायभूत तप-संयम आदि को जिज्ञासा वृत्ति को अथगत संशय तथा संसार और संसार-परिभ्रमण के कारणों की जिज्ञासा वृत्ति को अनर्थगत संशय कहते हैं । वस्तुतः ज्ञान के विकास की यात्रा दोनों प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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