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________________ १२२ : आचाराङ्ग का नोतिशास्त्रीय अध्ययन पैदा होता है तो उसे राग कहते हैं और जब घणा या विकर्षण पैदा होता है तो उसे द्वेष कहते हैं। मूलतः ये दोनों मोह से पैदा होते हैं । जहाँ राग है, वहाँ द्वेष अवश्य किसी न किसी के प्रति अन्तनिहित होता है । अतः आचारांग में राग को ही वन्धन का प्रमुख कारण माना गया है और उससे मुक्त होने का उपदेश है। संसार की प्रत्येक प्रवृत्ति के पीछे यह राग वृत्ति ही है। राग-द्वेष से कर्म-संस्कार और कर्म से संसार या जन्म-मरण का चक्र घूमता रहता है और यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक कि बन्धन से पूर्ण मुक्ति नहीं हो जाती। बौद्ध भी मोह को संसार का मूल मानते हैं। मूल का उन्मलन होते ही संसार की परिसमाप्ति स्वतः ही हो जाती है। इसीलिए आचारांग में आत्मा को राग-द्वेष से पृथक् रखकर वैराग्य की दिशा में आगे बढ़ने का निर्देश है।' जो साधक राग-द्वेष पर विजय पा लेता है, वही वीतरागता की भूमिका पर स्थित हो सकता है, शुद्ध चैतन्य का अनुभव कर सकता है । समत्व की प्रज्ञा जान जाने पर जितने भी मानसिक दोष हैं, विकार हैं, पापप्रवृत्तियाँ हैं, वे समाप्त हो जाती हैं। आचारांग में कहा गया है कि ( संसार-वृद्धि के कारण भूत ) राग-द्वेष की वृत्ति को समत्वरूपी प्रज्ञा से छिन्न-भिन्न करके मुनि संसार-समुद्र से पार हो जाता हैं अथवा रागद्वेष का छेदन कर संयमानुष्ठान में दृढ़ होकर जीवनयापन करता है। दशवकालिक सूत्र में भी यही कहा है कि राग-द्वेष का छेदन करने से तू संसार में सुखी हो जायगा । धम्मपद में भी कहा है कि साधक रागद्वेष का उन्मूलन कर निर्वाण प्राप्त कर लेता है। संसार के सभी मनुष्य दुःखों से पीड़ित हैं और वे दुःखों से मुक्ति की कामना करते हैं। दुःख क्यों होता है ? उसका मूल कारण क्या है ? क्या मूलकारण के विनाश होने पर दुःखों से छुटकारा मिल सकता है ? यदि मूलकारण का विनाश होने पर दुःखों से छुटकारा मिल सकता है तो फिर उसके विनाश का उपाय क्या है और उसमें क्या-क्या प्रतिबन्धक (विघ्न ) हैं ? दुःख और सुख को सच्ची व्याख्या क्या है ? दुःख और सुख का निवास कहाँ है ? दुःखाभाव से क्या सुख भिन्न है ? दुःखों से मुक्त पुरुष की स्थिति क्या है ? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर आचारांग में मनोविज्ञान की पद्धति से दिये गये हैं जिनका निर्वचन निम्नप्रकार हैमूलकारण : दुःख के मूलकारण की चर्चा के सन्दर्भ में आचारांग में राग, द्वेष, मोह और कषायों का उल्लेख मिलता है। इन शब्दों का यद्यपि अपना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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