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________________ १२२ : जेन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ । धारण करना, कटी किनारी वाले, फूलदार किनारी वाले, सर्प के फन के आकार की किनारी वाले वस्त्र को धारण करना भिक्षुणी के लिए निषिद्ध था। ___ इन नियमों का निर्माण सम्भवतः इसलिए किया गया था कि भिक्षुणियों के मन में वस्त्र के प्रति अनावश्यक आकर्षण न उत्पन्न हो तथा सुन्दरता के कारण दुराचारी जन उनका शील-भंग न कर सकें। प्रारम्भ से ही इस बात का प्रयत्न किया जाता था कि कोई अयोग्य स्त्री या पुरुष संघ में प्रवेश न कर सके। कामाचार से सम्बन्धित सबसे अधिक भय नपूसकों से था, अतः नपंसकों की दीक्षा बौद्ध संघ में भी सर्वथा निषिद्ध थी। बौद्ध संघ में शिक्षमाणा से उपसम्पदा के समय प्रश्नों के पूछने की परम्परा थी। इनमें अधिकतर प्रश्न उसके शरीर सम्बन्धी होते थे, यथा-क्या वह स्त्री है? वह अनिमित्ता (स्त्री-चिह्न-रहित) तथा निमित्तमत्ता (स्त्री-चिह्न निमित्तमात्र) तो नहीं है ? वह इत्थि-पण्डक (स्त्री-नपुंसक) अथवा वेपुरसिका (पुरुषोचित व्यवहार वाली) तो नहीं है ? वह उभतोव्यञ्जना (स्त्री-पुरुष के दोनों लक्षणों से युक्त) तो नहीं है ? इत्यादि। इन प्रश्नों की प्रकृति से यह प्रतीत होता है कि श्रामणेरी तथा शिक्षमाणा के रूप में उसके चरित्र तथा व्यवहार को पूरी जाँच कर ली जाती थी। व्यवहार ठीक न होने पर उसे निकाल देने का विधान था। इन प्रश्नों (अन्तरायिक धर्म) को उपसम्पदा के समय सम्भवतः इसलिए पूछने की परम्परा बनायी गयी होगी ताकि इतनी परीक्षा के पश्चात् भी यदि कोई अयोग्य स्त्री श्रामणेरी बन चुकी हो और भिक्षुणी बनने का प्रयत्न कर रही हो, तो उसे उसी समय निकाल दिया जाय । भिक्षुणियों की बढ़ती हुई संख्या तथा उससे उत्पन्न कठिनाइयों के कारण प्रव्रज्या तथा उपसम्पदा में भेद किया गया, ताकि कोई अयोग्य नारी संघ में प्रवेश न कर सके। इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्धाचार्यों ने भिक्षुणियों के शील-सुरक्षार्थ अनेक नियम बनाए थे। उन्होंने शील-भंग सम्बन्धी प्रत्येक परिस्थिति की कल्पना कर उसके निवारण के लिए नियम बनाये । जो भिक्षुणियाँ किसी कारणवश गर्भिणी हो जाती थीं, उनके साथ सहानुभूतिपूर्वक विचार किया १. चुल्लवग्ग, पृ० ३८७-८८. २. द्रष्टव्य-इसी ग्रन्थ का प्रथम अध्याय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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