SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भिक्षुणियों के शील सम्बन्धी नियम : १२३ः जाता था । आसन्नगर्भा (सन्नि सिन्नगन्भा) भिक्षुणियों के लिए एक सहायक भिक्षुणी देने की व्यवस्था थी । वह तब तक उस गर्भिणी भिक्षुणी की सहायता करती थी, जब तक कि उसका बच्चा समझदार न हो जाय ।' बौद्ध ग्रन्थों में कुछ भिक्षुणियों यथा-षड्वर्गीय भिक्षुणियाँ सुन्दरी नन्दा, थुल्लनन्दा, चण्डकाली, आदि कामाचार सम्बन्धी नियमों का अतिक्रमण करती हई दिखायी गई हैं। ये घटनाएँ काल्पनिक जान पड़ती हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि भिक्खुनो पातिमोक्ख के नियमों की प्रकृति को समझाने के लिए पाराजिक पालि, पाचित्तिय पालि अदि ग्रन्थों में इनको प्रतीकात्मक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। संघ में प्रवेश के पश्चात् भिक्षुणियाँ काम-वासना को जड़ से समाप्त करने का हर सम्भव प्रयत्न करती थीं। थेरीगाथा में बौद्ध भिक्षुणियों का मार (कुत्सित भावना) से जो वार्तालाप वणित है, उससे यह स्पष्ट होता है कि भिक्षुणियाँ काम-भावना पर विजय का प्रयत्न करती थीं तथा वासना की जड़ का मूलोच्छेदन कर निर्वाण अर्थात् परम शान्ति की अनुभूति करती थीं । सुमेधा के अनुसार कामासक्ति बन्धन को पैदा करती है तथा मनुष्य इससे अनेक दुःख भोगते हैं। शैला मार से कहती है कि भोग का सुख भाले के प्रहार के समान देह को विद्ध करने वाला है; विषयों का सुख घृणा की वस्तु है । वह अपने आप को कहती है कि उसकी भोगासक्ति सब जगहों से दमित हो गई है तथा अज्ञानान्धकार विदीर्ण हो चुका है। इसी प्रकार श्रिवस्ती की उत्पलवर्णा भिक्षुणी मार को कड़े शब्दों में फटकारते हुए कहतो है कि उसके जैसे हजारों मार भी उसका (उत्पलवर्णा का) कुछ नहीं बिगाड़ सकते। वह कहती है कि उसने अपनी वासना का सब जगह से उच्छेदन कर अज्ञानान्धकार को समाप्त. कर दिया है। १. चुल्लवग्ग, पृ० ३९९-४००. २. “कामेसु हि वधबन्धो कामकामा दुक्खानि अनुभोन्ति" -थेरी गाथा, गाथा, ५०६.. ३. वही, ५८. ४. "सतं सहस्सानं पि धुत्तकानं समागता एदिसका भवेय्यु । लोकं न इजे न पि सम्पवेधे किं मे तुवं मार करिस्सस एको' -वही, २३१.. ५. “सब्यस्थ विहता नन्दि तमोक्खन्धो पदालितो" -वही, २३५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy