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________________ अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार ४.२.८ गुणभद्र एवं प्रभाचन्द्राचार्य के अनुसार अन्तरात्मा का स्वरूप एवं लक्षण प्रभाचन्द्राचार्य गुणभद्र के आत्मानुशासन की टीका में अन्तरात्मा का विवेचन करते हुए लिखते हैं कि अन्तरात्मा को जब सम्यग्दर्शन की उपलब्धि हो जाती है तब उसे 'स्व' और 'पर' का विवेक उत्पन्न होता है और उसके आचरण में भी नया परिवर्तन आता है । वह आत्म-चिन्तन और आत्महित का पुरुषार्थ करती है । अन्तरात्मा के चारित्रमोहनीय कर्म का उदय विद्यमान रहने से वह विषयोपभोग में भी प्रवृत्ति तो करती है, किन्तु उसमें लिप्त नहीं होती आसक्ति नहीं रखती । वह रागादि भाव को हेय समझती है, उपादेय नहीं । अन्तरात्मा सांसारिक कार्यों से विरक्त होकर तप-संयम को ग्रहण करती है। वह सुन्दर संयम का परिपालन करती हुई कर्म-निर्जरा करती है एवं नये कर्मों का संवर करती हुई चार घातीकर्मों का क्षय करके अर्हन्त अवस्था को उपलब्ध करती है । तब उसे सकल परमात्मा कहा जा सकता है । पश्चात् वह शेष अघातिया कर्मों को भी नष्ट करके निकल परमात्मा (सिद्ध परमात्मा) हो जाती है । इस प्रकार अन्तरात्मा जाग्रत होते हुए परमात्मदशा की और गतिशील होती है ।०६ ४.२.६ हेमचन्द्राचार्य के अनुसार अन्तरात्मा का स्वरूप योगशास्त्र में अन्तरात्मा का निर्वचन करते हुए हेमचन्द्राचार्य लिखते हैं कि अन्तरात्मा विरक्त भावों से यह चिन्तन करती है कि यह शरीर तो किराये का मकान है । इसका क्या भरोसा? एक दिन इसे खाली करना ही होगा ।" यह आत्मा पुद्गल के स्वरूप, सुख-दुःख और संयोग-वियोग में हर्ष-विषाद नहीं करती है। १०६ १०७ आत्मानुशासनम् श्लोक १६३, संस्कृत टीका पृ. १८५-८६ । योगशास्त्र १२/७ । २४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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