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________________ २४० जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा सब मेरे शरीर के प्रति निग्रह, अनुग्रह अथवा उपकार या अपकार करते हैं, मेरी आत्मा के प्रति नहीं और यह शरीर आत्मा से भिन्न है। अतः शत्रुओं के प्रति द्वेष और स्वजनों के प्रति राग करना उचित नहीं है।०२ वस्तुतः जो मिथ्याज्ञान को छोड़कर सम्यग्ज्ञान में तत्पर होता है और आत्मा के द्वारा आत्मा को जानता है, वही कर्मबन्ध का निरोध करता है और ऐसी आत्मा ही योगी या अन्तरात्मा की कोटि में आती है। आत्मा के लक्षणों का उपसंहार करते हुए वे कहते हैं कि जो योगी (अन्तरात्मा) राग रहित होकर आत्मतत्त्व तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप मोक्षमार्ग को सम्यक् प्रकार से जानता है, वही अपनी आत्मा को पापों से बचा लेता है।०३ इस प्रकार जो योगी आत्मतत्त्व में होकर कषाय आदि कल्मषों को दूर करके सदैव आत्मा के ध्यान में ही निरत रहता है, वही अन्तरात्मा है। जो योगी आत्मतत्त्व में स्थित होकर संयम का परिपालन करता है, वह कर्म-निर्जरा करते हुए मुक्ति को प्राप्त होता हैं।०४ जो आत्मा परद्रव्य से सर्वथा विमुख है, उसे परद्रव्य के त्याग की इच्छा से आत्मस्वरूप की भावना करनी चाहिये। इस प्रकार स्वतत्त्व में अनुरक्ति और परद्रव्यों से विरक्ति ही समस्त कर्ममल की शुद्धि का उपाय है। इसलिए शुद्धि की इच्छा रखने वाले साधक को आत्मतत्त्व की उपासना और आराधना में ही अपना पुरुषार्थ करना चाहिये।०५ -वही । -वही । १०३ १०२ (क) 'मत्तष्च तत्त्वतो भिन्नं चेतनात्तदचेतनम् । द्वेषरागौ ततः कर्तुं तु युक्तौ तेषु कथं मम ।। १३ ।।' (ख) 'शत्रवः पितरौ दाराः स्वजना भ्रातरोऽगजाः । निगृह्णन्त्यनुग्रह्णन्ति शरीरं, चेतनं न मे ।। १२ ।।' 'आत्मतत्त्वंपयहस्तित-रागं, ज्ञान-दर्शन-चरित्रमयं यः । मुक्तिमार्गमवगच्छति योगी, संवृणोति दुरितानि स सद्यः ।। ६२ ।।' १०४ (क) 'स्पृश्यते शोध्यते नात्मा मलिनेनामलेन वा । . पर-द्रव्य-बहिर्भूतः परद्रव्येण सर्वथा ।। २६ ।।' (ख) 'स्वरूपमात्मनो भाव्यं परद्रव्य-जिहासया । न जहाति परद्रव्यआत्मरूपाभिभावकः ।। ३० ।।' 'ज्ञानेन वासितो ज्ञाने नाज्ञानेऽसौ कदाचन । यतस्ततो मतिः कार्या ज्ञाने शुद्धि विधित्सुभिः ।। ४७ ।।' वही। -वही अ. ६ । -वही । १०५ -वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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