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________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा अन्तरात्मा अनासक्त होकर बाह्य साधनों से ऊपर उठकर, भीतर की गहराई में उतरकर चैतन्य प्रभु का ध्यान करती हुई आत्मस्वरूप की अनुभूति करती है।" अन्तरात्मा की जीवनशैली को स्पष्ट करते हुए वे आगे लिखते हैं कि यह आत्मा निरन्तर उदासीन भाव में तल्लीन रहती हुई अपने शुद्धस्वरूप का ध्यान करती है । वे लिखते हैं कि अन्तरात्मा यह चिन्तन करती है कि वह मंगलमय शुभ प्रभात कब आयेगा, जब मैं सभी परपदार्थों के प्रति आसक्ति का त्यागी, जीर्ण-शीर्ण वस्त्रधारी होकर मलिन शरीर की भी परवाह न करते हुए मधुकरी भिक्षावृत्ति का आश्रय लेकर मुनिचर्या को ग्रहण करूंगी । अन्तरात्मा अन्तर की गहराई में उतरते हुए ऐसा सोचती है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप जैन धर्म से रहित होकर मैं चक्रवर्ती भी बनना नहीं चाहती । गुरु भगवन्त के चरणरज का स्पर्श करती हुई ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप त्रिविध रत्नत्रयी योगों का बार-बार पुरुषार्थ करके जन्म-मरण के चक्र को समाप्त करने में कब मैं समर्थ बनूंगी? कब मैं मोक्षरूपी महल में प्रवेश के हेतु गुणस्थान और गुणश्रेणी रूपी निःश्रेणी पर अग्रसर होकर आनन्दरूपी लताकन्द के समान जिनधर्म के प्रति अनुराग, उत्कृष्ट चारित्र, कायोत्सर्ग आदि मनोरथों से परम समाधिरूप परमानन्द को प्राप्त करूंगी।" २४२ ४.२.१० बनारसीदासजी की दृष्टि में अन्तरात्मा का स्वरूप एवं लक्षण द्वार में बनारसीदासजी समयसार नाटक के साध्य-साधक अन्तरात्मा के तत्त्वों को अभिव्यक्त करते हुए लिखते हैं कि जैसे जलवृष्टि जगत् के जीवों के लिए हितकारी लगती है; वैसे ही अन्तरात्मा को सद्गुरूजनों का उपदेश या उनकी वाणी मेघ की जलवृष्टि की तरह हितकारी प्रतीत होती है ।" अन्तरात्मा सम्पत्ति १०८ वही १२ / १० । १०६ वही १२ / १६ - २१ । ११० वही ३/१४१-४६ | 999 'ज्यौं वरषै वरषा समै, मेघ अखंडित धार । त्यौं सदगुरू वानी खिरै, जगत जीव हितकार || ६ || ' - समयसार नाटक ( साध्य साधक द्वार ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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