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________________ ६६ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा अन्तराय ये आठ मूल प्रकृतियाँ हैं । जैसे कोई लड्डू बहुत प्रकार के द्रव्यों के संयोग से बनता है उन द्रव्यों के कारण वह वात, पित्त और कफ को दूर करता है; वैसे ही आठों कर्म पुद्गलों का जो स्वभाव होता है, वह प्रकृतिबन्ध है । २६६ .३७० (२) स्थितिबन्ध : कालावधारणा स्थितिः” अर्थात् कौनसा कर्म कितने समय तक आत्मा से सम्बद्ध रहेगा? किस अवधि तक वह अपना फल देता रहेगा? ऐसी अवस्था का नाम स्थितिबन्ध है। शास्त्रों में कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति एवं जघन्य स्थिति की चर्चा उपलब्ध होती है । कषायपाहुड में भी कहा गया है- “जितने समय तक कर्मरूप पुद्गल - परमाणु आत्मा के प्रदेशों में स्थित रहते हैं उस काल की मर्यादा को स्थितिबन्ध कहते हैं ।” आचार्य पूज्यपाद ने कहा है कि काल विशेष तक अपने स्वभाव से च्युत न होना ही स्थिति है । जिस प्रकार गाय, भैंस आदि का दूध काल विशेष तक ही माधुर्य स्वभाव से च्युत नहीं होता है, उसी प्रकार ज्ञानावरण आदि कर्मों के कारण वस्तु तत्त्व का ज्ञान जब तक नहीं होता है; उस काल मर्यादा को स्थितिबन्ध कहा जाता है । ३७२ वीरसेन ने भी कहा है कि योग के कारण कर्मरूप से परिवर्तित पुद्गल-स्कन्धों का कषाय के कारण जीव में एक रूप होकर रहने का कारण स्थितिबन्ध है । ३७१ (३) अनुभागबन्धः- “ विपाको ऽनुभागः” अर्थात् कर्मों के विपाक (फल) को अनुभाग कहते हैं । अनुभाग, अनुभाव और फल ये सब पर्यायार्थी शब्द हैं। विपाक दो प्रकार का होता है : (क) कषाय के तीव्र परिणामों से कर्मबन्ध होगा तो उसका विपाक भी तीव्र होगा; और (ख) मन्द परिणामों से कर्मबन्ध होगा तो उसका विपाक मन्द होगा । - यथार्थ में कर्म जड़ है तो भी पथ्य एवं अपथ्य आहार की तरह उनसे जीव को क्रियाओं के अनुसार फल की प्राप्ति हो जाती ३६६ ज्ञानावरणाधाष्टविधकर्मणां तत्तद्योग्यपुद्गलद्रव्यस्वीकारः प्रकृतिबन्धः । - नियमसार तात्पर्यवृत्ति ४० । ३७० कषायपाहुड ३/३५८ । ३७१ सर्वार्थसिद्धि ८/३ | ३७२ धवला पु. ६, सं. १ भाग ६ / ६, सूत्र २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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