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________________ विषय प्रवेश है I कर्मफल के लिए किसी ईश्वर आदि की आवश्यकता नहीं है | ३७३ (४) प्रदेशबन्धः- “ दलसंचयः प्रदेशः” अर्थात् कर्मों के दल संचय को प्रदेशबन्ध कहते हैं। दूसरे शब्दों में योग के निमित्त से कर्मवर्गणाओं का आत्म-प्रदेशों के साथ सम्बन्ध होना ही प्रदेशबन्ध है। सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है कि कर्म पुद्गलों की संख्या का निर्धारण प्रदेशबन्ध है अर्थात् कर्म रूप में परिणत पुद्गल स्कन्धों के परमाणुओं की संख्या का निश्चय होना प्रदेशबन्ध कहलाता है । ३७४ २. बन्ध के भेद तत्त्वार्थवार्तिक में आचार्य अकलंक ने बन्ध का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया है । ३७५ सामान्य की अपेक्षा से बन्ध एक ही प्रकार का है । किन्तु विशेष की अपेक्षा से बन्ध के दो भेद होते हैं : (१) द्रव्यबन्ध; और (२) भावबन्ध ,३७६ ३७६ (१) द्रव्यबन्ध ज्ञानावरणादि कर्मपुद्गलों का आत्म प्रदेशों से नीर-क्षीरवत् मिल जाना द्रव्यबन्ध कहलाता है । ३७७ (२) भावबन्ध आत्मा के जो अशुद्ध चेतन परिणाम राग-द्वेष मोह और क्रोधादि कषायरूप हैं और जिनसे ज्ञानावरणादि कर्मपुद्गल आते हैं; वे भावबन्ध हैं । ३७८ ३७३ तत्त्वार्थसूत्र ८/२४ । ३७४ (क) सर्वार्थसिद्धि ८ / १३ पृ. ३७६; (ख) तत्त्वार्थवार्तिक ८ /१३/३ | ३७५ तत्त्वार्थवार्तिक १/७/१४; ८/४/१५ - आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार ७६ में कहा है कि उपयोगस्वरूप जीव के जो राग-द्वेष, मोह आदि हैं, वे बन्ध के भाव ३७६ वही २/१०/२ पृ. १२४ । ३७७ ‘आत्मकर्मणोरन्योऽन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बन्धः ।' ३७८ (क) 'क्रोधादि परिणामवशीकृतो भावबन्धः ।' - ६७ प्रवचनसार २/८३ | Jain Education International (ख) 'बन्ध्यते अस्वतन्त्रीक्रियन्ते कार्मणद्रव्यायेन परिणमेन आत्मनः स बन्धः ।' - भगवती आराधना विजयोदया टीका ३८ / १३४ । - सर्वार्थसिद्धि १/४ पृ. १४ । - तत्त्वार्थवार्तिक २/१०० पृ. १२४ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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