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________________ विषय प्रवेश ६५ कारण बन्धन को प्राप्त होते हैं। समस्त भारतीय दार्शनिकों ने कर्मों के कारण संसारी आत्मा के बन्धन की परिकल्पना की है। दो या दो से अधिक पदार्थों का एक-दूसरे से मिल कर संश्लिष्ट अवस्था को प्राप्त होना ही बन्ध कहलाता है। कर्मास्रव के वें अध्याय में आचार्य उमास्वाति ने बन्ध के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है: “कषाययुक्त जीव के द्वारा कर्म-पुद्गलों का जो ग्रहण होता है वही बन्ध है।"३६६ बन्ध के स्वरूप को परिभाषित करते हुए पूज्यपाद देवनन्दी कहते हैं कि जिस प्रकार सोने और चाँदी को एक साथ पिघलाने पर उन दोनों के प्रदेश मिलकर संश्लिष्ट हो जाते हैं; उसी प्रकार कर्मप्रदेश और आत्मप्रदेश का परस्पर क्षीर और नीर की तरह मिल जाना बन्ध है।३६७ जब पदगल द्रव्य के कर्मयोग्य परमाणु आत्मप्रदेशों के साथ मिल जाते हैं तो आत्मा का स्वरूप विकृत हो जाता है। उसका शुद्ध स्वरूप आवरित हो जाता है, यही बन्धन है। १. बन्ध के प्रकार - बन्ध के मुख्यतया चार प्रकार हैं - (१) प्रकृति बन्ध; (२) स्थितिबन्ध; (३) अनुभागबन्ध; और (४) प्रदेशबन्ध । (१) प्रकृतिबन्ध : आत्मा से बद्ध होनेवाले कर्मों में किस कर्म का क्या स्वभाव है? वह आत्मा के किस गुण को प्रभावित करेगा? इस आधार पर कर्मों के वर्गीकरण का नाम ही प्रकृतिबन्ध है। सामान्य रूप से ग्रहण किये हुए कर्मपुद्गलों का जो स्वभाव होता है, उसे प्रकृति कहते हैं;३६८ जैसे ज्ञान को रोकना ज्ञानवरणीय कर्म का स्वभाव है और दर्शन को रोकना दर्शनावरणीय कर्म का स्वभाव है। कर्मों की ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र, आयुष्य एवं ३६६ 'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते । स बन्धः ।' -तत्त्वार्थसूत्र ८/२ । ३६७ (क) सर्वार्थसिद्धि १/४ पृ. १४ । (ख) तत्त्वार्थवार्तिक १/४/१७ । ३६८ 'प्रकृतिः स्वभावः ।' -सर्वार्थसिद्धि ८/३ पृ. ३७८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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