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________________ उस ओर जाती अवश्य है । दूसरे वह साहित्य जैनाचार दर्शन सम्बन्धी प्राचीन आगम साहित्य से कालिक साम्यता भी रखता है। अतः प्रस्तुत गवेषणा में उसे ही बौद्ध परम्परा के अध्ययन का मुख्य आधार बनाया है। यद्यपि विशुद्धिमग्ग जैसे स्थविरवादो और बोधिचर्यावतार तथा लंकावतार जैसे महायानी ग्रन्थों का तुलना की दृष्टि से यथासम्भव उपयोग किया गया है। __ प्रस्तुत गवेषणा में जिन महापुरुषों, विचारकों, लेखकों, गुरुजनों एवं मित्रों का सहयोग रहा है उन सबके प्रति आभार प्रदर्शित करना मैं अपना पुनीत कर्तव्य समझता हूँ। सर्वप्रथम मैं उन महापुरुषों के प्रति विनयवत् हूँ जिन्होंने मानव जीवन की मूलभूत समस्याओं को गहराई से परखा और उनके निराकरण के लिए मानव को मार्ग-दर्शन प्रदान किया । कृष्ण, बुद्ध और महावीर एवं अनेकानेक ऋषि-महर्षियों के उपदेशों की यह पवित्र धरोहर, जिसे उन्होंने अपनी प्रज्ञा एवं साधना के द्वारा प्राप्त कर मानव कल्याण के लिए जन-जन में प्रसारित किया था, आज भी हमारे लिए मार्गदर्शक हैं और हम उनके प्रति श्रद्धावनत् हैं । लेकिन महापुरुषों के ये उपदेश, आज देववाणी संस्कृत, पालि एवं प्राकृत में जिस रूप में हमें संकलित मिलते हैं, हम इनके संकलनकर्ताओं के प्रति आभारी हैं, जिनके परिश्रम के फलस्वरूप वह पवित्र थाती सुरक्षित रहकर आज हमें उपलब्ध हो सकी है। सम्प्रति युग के उन प्रवुद्ध विचारकों के प्रति भी आभार प्रकट करना आवश्यक है जिन्होंने बुद्ध, महावीर और कृष्ण के मन्तव्यों को युगीन सन्दर्भ में विस्तारपूर्वक विवेचित एवं विश्लेषित किया है। इस रूप में जैन दर्शन के मर्मज्ञ पं० सुखलालजी, उपाध्याय अमरमुनि जी, मुनि नथमलजी, प्रो० दलसुखभाई मालवणिया, बौद्ध दर्शन के अधिकारी विद्वान् धर्मानन्द कौसम्बी एवं अन्य अनेक विद्वानों एवं लेखकों का भी मैं आभारी हूँ जिनके साहित्य ने मेरे चिन्तन को दिशा निर्देश दिया है। __ मैं जैन दर्शन पर शोध करने वाले डॉ० टाटिया, डॉ० पद्म राजे, डॉ. मोहन लाल मेहता, डॉ० कल घटगी एवं डॉ० कमल चन्द सोगानी एवं डॉ० दयानन्द भार्गव आदि उन सभी विद्वानों का भी आभारी हैं जिनके शोध ग्रन्थों ने मुझे न केवल विषय और शैली के समझने में मार्गदर्शन दिया वरन् जैन ग्रन्थों के अनेक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भो को बिना प्रयास के मेरे लिए उपलब्ध भी कराया है । इसी प्रकार में अभिधानराजेन्द्रकोश जैसे कोश निर्माताओं और सूक्ति त्रिवेणी एवं महावीर वाणी जैसे कुछ प्रामाणिक सूक्ति संग्राहकों के प्रति भी आभार प्रकट करता हूँ, जिनके कारण अनेक सन्दर्भ अल्प प्रयास में ही उपलब्ध हो सके है । इन सबके अतिरिक्त मैं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के उन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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