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________________ - १४ - लेखकों के प्रति भी आभारी हूँ जिनके विचारों से प्रस्तुत गवेषणा में लाभान्वित हुआ हूँ । उन गुरुजनों के प्रति, जिनके व्यक्तिगत स्नेह, प्रोत्साहन एवं इस कार्य में सहयोग दिया है, श्रद्धा प्रकट करना भी मेरा अनिवार्य प्रथम मैं सौहार्द, सौजन्य एवं संयम की मूर्ति श्रद्धेय गुरुवर्य डा० सी० पी० ब्रह्मों का अत्यन्त ही अभारी हूँ जिन्होंने निर्देशक के नाम से विलग रहकर भी इस शोध के निर्देशन का सम्पूर्ण भार अपनी वृद्धावस्था में भी वहन किया है । अपने स्वास्थ्य की चिन्ता नहीं करते हुए भी उन्होंने प्रस्तुत गवेषणा के अनेक अंशों को ध्यानपूर्वक पढ़ा या सुना एवं यथावसर उसमें सुधार एवं संशोधन के लिए निर्देश भी किया। मैं नहीं समझता हूँ कि केवल शाब्दिक आभार प्रकट करने मात्र से मैं उनके प्रति अपने दायित्व से उऋण हो सकता हूँ । जिनके चरणों में बैठकर दर्शन और आचार विज्ञान का ज्ञान अर्जित कर सका और जिनकी प्रेरणा एवं जिनके सहयोग से यह महत् कार्य सम्पन्न कर सका उनके प्रति कैसे आभार प्रकट करूं यह मैं नहीं समझ पा रहा हूँ। मैं तो मात्र उनके गुरुऋण के सूद की यह अंशिका विनयवत् हो उन्हें प्रस्तुत कर रहा हूँ | मार्गदर्शन ने मुझे कर्तव्य है । सव प्रस्तुत गवेषणा के निर्देशक डा० सदाशिव बनर्जी का भी मैं अत्यन्त आभारी हूँ जिनकी आत्मीयता, सहयोग एवं निर्देशन से मैं लाभान्वित हुआ हूँ और जिनका मृदु, निश्छल एवं सरल स्वभाव सदैव ही उनके प्रति मेरी श्रद्धा का केन्द्र रहा है । विद्वत्वर्य डॉ० इन्द्रचन्द्र शास्त्री, देहली विश्वविद्यालय का भी मैं आभारी हूँ जिन्होंने प्रस्तुत शोधकार्य के कुछ अंशों को सुनकर एवं मार्गनिर्देश देकर मुझे लाभान्वित किया है । Jain Education International प्राकृत भारती संस्थान के सचिव श्री देवेन्द्रराज मेहता एवं श्री विनयसागरजी का भी मैं अत्यन्त अभारी हूँ, जिनके सहयोग से यह प्रकाशन सम्भव हो सका है । महावीर प्रेस ने जिस तत्परता और सुन्दरता से यह कार्य सम्पन्न किया है उसके लिए उनके प्रति आभार व्यक्त करना भी मेरा कर्तव्य है । मित्रवर श्री जमनालालजी जैन ने इसकी प्रेस कापी तैयार करने में सहयोग प्रदान किया है अतः उनके प्रति भी हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ । मैं पार्श्वनाथ विद्याश्रम परिवार के डा० हरिहर सिंह, श्री मोहन लाल जी, श्री मंगल प्रकाश मेहता तथा शोध छात्र श्री रविशंकर मिश्र, श्री अरुण कुमार सिंह, श्री भिखारी राम यादव और श्री विजयकुमार जैन का आभारी हूँ, जिनसे विविधरूपों में सहायता प्राप्त होती रही है । अन्त में पत्नी श्रीमती कमला जैन का भी मैं अत्यन्त आभारी हूँ, जिसके त्याग एवं सेवा भाव ने मुझे पारिवारिक उलशनों से मुक्त रखकर विद्या की उपासना का अवसर दिया । इस सम्पूर्ण प्रयास में मेरा अपना कुछ भी नहीं है, सभी कुछ गुरुजनों का दिया For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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