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________________ -१२ ईशावास्योपनिषद् एवं गीता की मूलभूत धारणा पर जिस हिन्दू आचार परम्परा का विकास हुआ उसमें सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दृष्टि से वर्तमान काल तक अनेक परिवर्तन हुए और परिणामस्वरूप विभिन्न मान्यताएँ बनीं जो एक दूसरे के विरोध में खड़ी रहीं । अतः प्रस्तुत गवेषणा में उन सबको सम्मिलित करना न तो उचित था, न सम्भव ही। इसलिए हिन्दू आचार परम्परा के प्रतिनिधि के रूप में गीता का चयन करना ही उचित प्रतीत हुआ, क्योंकि हिन्दू परम्परा के आधारभूत ग्रन्थों में उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र एवं गोता की प्रस्थानत्रयी ही प्रमाण भूत है । चाहे हिन्दू परम्परा में कितने ही पारस्परिक विरोध हों, चाहे हिन्दू आचार की परिधियां अनेक हों फिर भी केन्द्र सबका एक ही है । सभी अपने पक्ष का समर्थन प्रस्थानत्रयी के आधार पर करने का प्रयास करते हैं । इस प्रकार गीता आज भी सभी को श्रद्धेय है और हिन्दू आचार दर्शन का प्रतिनिधित्व करने में समर्थ है । डा० राधाकृष्णन् लिखते हैं, "यह ( गीता ) हिन्दू धर्म के किसी एक सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करती वरन् समग्र रूप में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व करती है ।" अत: तुलनात्मक दृष्टि से गीता का अधिक उपयोग किया गया है फिर भी गीता के संक्षिप्त ग्रन्थ होने के कारण तुलनात्मक साम्यता को स्पष्ट करने के लिए यथावसर उपनिषदों, स्मृतिग्रन्थों तथा महाभारत का भी उपयोग किया है। बौद्धाचार परम्परा ने जिस मध्यम मार्ग का उपदेश दिया था, वह उचित समाधान तो था, लेकिन व्यावहारिक जीवन में निवृत्ति और प्रवृत्ति के मध्य उस समतौल को बनाये रखना सहज नहीं था। परिणाम यह हुआ कि बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद वह समतोल विचलित हो गया । एक पक्ष का झुकाव निवृत्ति की ओर अधिक हुआ और वह हीनयान ( छोटा वाहन ) कहलाया है क्योंकि निवृत्यात्मक साधना में अधिक लोगों को लगा पाना संभव नहीं था । दूसरी ओर जो पक्ष प्रवृत्ति की ओर झुका एवं जिसने जन कल्याण के मार्ग को अपनाया, वह महायान ( बड़ा वाहन ) कहलाया। एक बार इस समतौल का विचलन होने के बाद बौद्ध परम्परा अपनी मध्यस्थिति को पुनः नहीं लौट पायी, वरन् विभिन्न अवान्तर सम्प्रदायों ( निकायों ) में विभाजित होती चली गयी। प्रस्तुत तुलनात्मक गवेषणा में बौद्ध दर्शन को उस विस्तृत समग्न रूप में समेट पाना असम्भव है । दूसरे उन निकायों की पारस्परिक दूरी इतनी अधिक है, कि तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से वे अधिक उपयोगी नहीं रह जाती; अतः प्रस्तुत गवेषणा में बौद्ध दर्शन से तात्पर्य प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन से ही है । प्राचीन बौद्ध पालि साहित्य में वर्णित आचार परम्पराओं से आज का बौद्ध समाज चाहे कितना ही दूर क्यों नहीं हो फिर भी आचार दर्शन सम्बन्धी समस्याओं के हल खोजने में आज भी उसकी दृष्टि १. भगवद्गीता ( राधाकृष्णन् ), पृ० १४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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