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________________ (१८) षट्खंडागमकी प्रस्तावना फिर आगे सूत्र ११ में दर्शनमोहके क्षपणका प्रारंभ करने योग्य स्थान और परिस्थितिको बतलाया है कि अढ़ाई द्वीप-समुद्रोंकी केवल उन पन्द्रह कर्मभूमियोंमें दर्शनमोहका क्षपण प्रारंभ किया जा सकता है जहां जिन भगवान् केवली व तीर्थंकर विद्यमान हों। और १२ वें सूत्रमें यह कह दिया है कि एक वार उक्त परिस्थितिमें क्षपणाकी स्थापना करके उसकी निष्ठापना अर्थात् पूर्ति चारों गतियोंमेंसे किसी भी गतिमें की जा सकती है। ऐसे क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करनेवाले जीवकी योग्यता सूत्र १३-१४ में बतलाई है कि जब वह क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्तिके उन्मुख होता है तब वह आयुकर्मको छोड़ शेष सात कर्मोकी स्थितिको अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण कर लेता है । यदि सम्यक्त्वके साथ साथ चारित्र अर्थात् देशचारित्र भी ग्रहण करता है तो भी वह जीव सातों कौकी स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण करता है । यह अन्तःकोड़ाकोड़ी धवलाकारके स्पष्टीकरणानुसार पूर्वसे बहुत हीन होती है । आगेके सूत्र १५ और १६ में सकलचारित्र ग्रहणकी योग्यता बतलाई गयी है कि उस समय जीव चारों घातिया कौकी स्थिति तो अन्तर्मुहूर्त कर लेता है, किन्तु वेदनीयकी बारह मुहूर्त, नाम और गोत्रकी आठ मुहूर्त एवं शेषकी स्थिति भिन्न मुहूर्त करता है । सूत्रकारके इस संक्षप निर्देशको धवलाकारने इतना विस्तार दिया है और विषयको इतनी सूक्ष्मता, गम्भीरता और विशालताके साथ समझाया है जितना यह विषय और कहीं प्रकाशित साहित्यमें अब तक हमारे देखनेमें नहीं आया.। लब्धिसारका विवेचन भी इसके सन्मुख बहुत स्थूल दिखने लगता है। धवलाकारने पहले तो पांचों लब्धियोंका स्वरूप समझाया है (पृ. २७४) और फिर सम्यक्त्वके अभिमुख जीव के कितनी प्रकृतियोंकी सत्ता रहती है, उनमें कितना कैसा अनुभाग रहता है, किन प्रकृतियोंका उदय रहता है व चारों गतियोंमें इनमें कितना क्या भेद पड़ता है, इसका खूब खुलासा किया है (पृ. २०७-२१४)। इसके पश्चात् अवःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण परिणामोंकी विशेषता समझाई है (पृ. २१५-२२२)। सूत्र ५ के आश्रयसे उन्होंने यह बात विस्तारसे बताई है कि उक्त परिणामोंमें विशुद्धि बढ़नेके साथ साथ कर्मोंका स्थिति व अनुभाग घात किस प्रकार व किस क्रमसे होता है (पृ. २२२-२३०)। फिर मिथ्यात्वके अवघटन या अन्तरकरणकी क्रिया समझाई है व.. उपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होने तक गुणश्रेणी व गुणसंक्रमणादि कार्य बतलाये हैं, तथा पूर्वोक्त समस्त क्रियाओंके कालका अल्पबहुत्व पच्चीस पदोंके दंडक द्वारा बतलाया है (पृ. २३१-२३७)। क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके योग्य क्षेत्र व जीवका स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने यह बतलाया है कि जिन जीवोंका पन्द्रह कर्मभूमियोंमें ही जन्म होता है, अन्यत्र नहीं, वे ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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