SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषय-परिचय (१७) आता है । उन्होंने कषायवृद्धिको भी संक्लेशका लक्षण मानना उचित नहीं समझा, क्योंकि विशुद्धिकालमें भी तो कषायवृद्धि होना संभव है और उसीसे सातावेदनीय आदि कर्मीका भुजाकार बंध होता है । ध्यान देने योग्य बात एक और यह है कि छठवें गुणस्थान तक जिस असातावेदनीय कर्मका बंध होता है उसकी जघन्य स्थिति एक सागरोपमके लगभग / भागप्रमाण होती है और जो सातावेदनीय कर्म सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयमें बांधा जाता है उसका भी जघन्य स्थितिबंध १२ मुहूर्तसे कम नहीं होता । यद्यपि दर्शनावरणीयका बंध तीस कोड़ाकोडी सागरसे घटकर अन्तर्मुहूर्तमात्र जघन्य स्थिति पर आ जाता है, पर शुभ बंध होनेके कारण सातावेदनीय कर्मकी विशुद्धिके द्वारा भी उतनी अपवर्तना नहीं हो पाती। (देखो सू.९ टीका) __ सूत्रोंमें प्रकृति और स्थिति बंधका विचार तो खूब हुआ, पर प्रदेश और अनुभाग बंधका कहीं परिचय नहीं कराया गया ? इसका समाधान धवलाकारने जघन्यस्थिति चूलिकाके अन्तमें किया है कि उक्त प्रकृति और स्थिति बंधकी व्यवस्थासे ही प्रदेश व अनुभाग बंधकी व्यवस्था निकल आती है जिसे उन्होंने वहां समझा भी दिया है। उसी प्रकार उन्होंने सत्त्व, उदय और उदीरणाका स्वरूप भी बंधप्ररूपणाके आधारसे समझा दिया है। इस चूलिका ४३ सूत्र हैं और यह विषय उत्कृष्टस्थिति चूलिकाके समान अर्धच्छेद प्रकरणसे लिया गया है। ८. सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिका ___ इस चूलिकाको इस समस्त ग्रंथका प्राण कहा जाय तो अनुपयुक्त न होगा। यहां सूत्र केवल १६ ही हैं पर उनमें संक्षेपरूपसे यह महत्त्वपूर्ण समस्त विषय बड़ी ही सावधानीसे सूचित कर दिया गया है। यह विषय चार अधिकारोंमें विभाजित है। पहले सात सूत्रोंमें यह बतलाया गया है कि कोई भी पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि जीव अपने परिणामोंकी विशुद्धता बढ़ाते हुए क्रमशः समस्त कमौकी स्थितिको घटाते घटाते जब अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाणसे भी कम कर लेता है तब फिर वह एक अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यात्वका अवघटन करता है, अर्थात् उसकी अनुभागशक्तिको घटा कर उसका अन्तरकरण करता है, जिससे मिथ्यात्वके तीन भाग हो जाते हैं सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । बस, यहीं उस जीवको प्रथम सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। आगेके तीन सूत्रोंमें (८-१०) समस्त दर्शनमोहनीयकर्मके उपशमनके अधिकारी जीवका निर्देश किया गया है, जिसमें कहा गया है कि यह क्रिया चारों गतियोंका कोई भी पंचेन्द्रिय संज्ञी गर्भोत्पन्न पर्याप्तक जीव कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy