SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषय-परिचय (१९) क्षपणाके योग्य होते हैं, और चूंकि तिर्यंच उक्त कर्मभूमियोंके अतिरिक्त स्वयंप्रभ पर्वतके परभागमें भी उत्पन्न होते हैं, इससे तिर्यंचमात्र क्षपणाके योग्य नहीं ठहरते (पृ. २४४-२४५)। यद्यपि जिस कालमें जिन, केवली व तीर्थंकर हों वही काल क्षपणाकी प्रस्थापनाके योग्य होता है ऐसा कहनेसे केवल दुषमासुषमा काल ही इसके योग्य ठहरता है, पर कृष्णादिकके तीसरी पृथ्वीसे निकलकर तीर्थकरत्व प्राप्त करनेकी जो मान्यता है उसके अनुसार सुषमादुषमा कालमें भी दर्शनमोहका क्षपण किया जा सकता है (पृ. २४६-२४७) । आगे दर्शनमोहके क्षपण करनेके आदिमें अनन्तानुबंधीके विसंयोजनसे लगाकर जो स्थितिबंधापसरण, अनुभागबंधापसरण, स्थितिकांडकघात, अनुभागकांडकघात व गुणश्रेणी संक्रमण आदि कार्य होते हैं वे खूब विस्तारसे समझाये हैं (पृ. २४८-२६६)। और फिर वे ही कार्य देशचारित्र सहित सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाले के किस विशेषताको लेकर होते हैं यह बतलाया है (पृ. २६८-२८०)। वे ही कार्य सकलचारित्रकी प्राप्तिमें किस विशेषतासे होते हैं यह फिर आगे बतलाया है (पृ. २८१-३१७)। इससे आगे उपशांतकषायसे पतन होनेका क्रमवार विवरण दिया गया है (पृ. ३१७-३३१ ) और फिर पूर्वोक्त जो पुरुषवेद और क्रोधकषाय सहित श्रेणी चढ़नेका विधान कहा है उसमें अन्य कषायों व अन्य वेदोंसे चढ़नेपर क्या विशेषता उत्पन्न होती है यह बतलाया है (पृ. ३३२-३३५)। तत्पश्चात् श्रेणी चढ़नेसे उतरने तककी समस्त क्रियाओंके कालका अल्पबहुत्व कहा गया है (पृ. ३३५-३४२)। अब चारित्रमोहकी क्षपणाका विधान आता है जिसमें अपूर्वकरण गुणस्थानसे लेकर समय समयकी क्रियाओंका विशद और सूक्ष्म निरूपण किया गया है और क्रमशः आठ कषाय व निद्रानिद्रादिकका संक्रमण, मनःपर्ययज्ञानावरणादिकका बन्धसे देशघातिकरण, चार संज्वलन और नौ नोकषायोंका अन्तरकरण तथा नपुंसक व स्त्रीवेद तथा सात नोकषायोंका संक्रमण बतलाया गया है (पृ. ३४४-३६४)। इसके आगे अश्वकर्णकरण काल का निरूपण है जिसमें चारों कषायोंके स्पर्द्धकों और फिर उनके अपूर्वस्पर्द्धकों तथा उनकी वर्गणाओंमें अविभागप्रतिच्छेदोंका वर्णन किया गया है (पृ. ३६४-३६८)। इसके पश्चात् अश्वकर्णकरण काल के प्रथम, द्वितीय व तृतीय समयके कार्योंका अल्पबहुत्व, अनुभागसत्वकर्मका अल्पबहुत्व व अर्वस्पर्द्धकोंका अल्पबहुत्व देकर अश्वकर्णकरणके अन्तर्मुहूर्तकाल का विधान समाप्त किया गया है (३६९-३७३)। यहां अश्वकर्णकरणकालके अन्तमें कर्मोंके स्थितिबन्धका प्रमाण बतलाकर कृष्टिकरणकालका विधान समझाया गया है जिसमें प्रथमसमयवर्ती कृष्टियोंकी तीव्र-मंदताका अल्पबद्दुत्व, कृष्टियोंके अन्तरोंका अल्पबहुत्व, कृष्टियोंके प्रदेशाप्रकी श्रेणीप्ररूपणा और कृष्टिकरणकालके अन्त समयमें संज्वलनादि कोंके स्थितिबन्धका निरूपण खूब विशद हुआ है (पृ. ३७४-३८१)। कृष्टिकरणकालमें पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंका वेदन होता है, कृष्टियोंका नहीं । जब कृष्टिकरणकाल समाप्त होजाता है, तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy