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________________ (१६) षट्खंडागमकी प्रस्तावना करती है अर्थात् बंध होनेके कितने समय पश्चात् उनका विपाक प्रकट होता है । इस कालनिर्देशके लिये आगे दी हुई तालिका देखिये। आबाधाका सामान्य नियम यह है कि प्रत्येक कोडाकोडी सागरके बंधपर एक सौ वर्षोंकी आबाधा होती है। जैसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, असातावेदनीय व अन्तराय कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबंध तीस कोडाकोडी सागरोपमोंका है तो इसी परसे जाना जा सकता है, कि उक्त कर्म बंध होनेसे तीन हजार वर्षोंके पश्चात् उदयमें आवेंगे। पर यह नियम आयुकर्मके लिये लागू नहीं होता क्योंकि वहां अधिकसे अधिक आवाधा. अधिकसे अधिक भुग्यमान आयुके तृतीय भागप्रमाण ही हो सकती है ( देखो सू. २९ टीका)। जिन कर्मोंकी स्थिति अन्तःकोडाकोडी सागरोपमकी है उनकी आबाधाका प्रमाण एक अन्तर्मुहूर्त माना गया है (देखो सू. ३३-३४) । इस प्रकार आबाधाकालको छोड़कर शेष समस्त कर्मस्थितिकालमें उन कोका निषेक अर्थात् उदयमें आकर गलन होता है. जिसकी प्रक्रिया धवलाकारने गणितके नियमानुसार विस्तारसे समझाई है। इसमें आबाधाकाण्डक और नानागुणहानि आदि प्रक्रियायें ध्यान देने योग्य हैं (देखो सू. ६ टीका)। इस चूलिकाकी सूत्रसंख्या ४५ है जिनके विषयका संग्रह महाकर्मप्रकृतिके बंधविधानान्तर्गत स्थिति अधिकार अर्धच्छेद प्रकरणसे किया गया है । ७. जघन्यस्थिति चूलिका जिस प्रकार उपर्युक्त उत्कृष्टीस्थति चूलिकामें कौकी अधिकसे अधिक स्थिति व आबाधा आदिका विवरण दिया गया है, उसी प्रकार जघन्यस्थिति चूलिकामें कर्मोंकी कमसे कम संभव स्थिति व आबाधा आदिका ज्ञान कराया गया है । यहां धवलाकारने आदिमें ही उत्कृष्ट और जघन्य स्थितियों के कर्मबंधोंका कारण इस प्रकार बतलाया है कि परिणामोंकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे जो कर्मबंध होता है उसमें स्थिति जघन्य पड़ती है और जितनी मात्रामें परिणामों में संक्लेशकी वृद्धि होती है उतनी ही कर्मस्थितिकी वृद्धि होती है । असाता बंधके योग्य परिणामको संक्लेश कहते हैं और साताबंधके योग्य परिणामको विशुद्धि । दूसरे आचार्योंने जो उत्कृष्ट स्थितिसे नीचे नीचेकी स्थितियों को बांधनेवाले जीवके परिणामको विशुद्धि और जधन्यास्थितिसे ऊपर ऊपरकी स्थितियों को बांधनेवाले जीवके परिणामको संक्लेश कहा है, उसे धवलाकार ठीक नहीं समझते, क्योंकि वैसा माननेपर तो जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबंधयोग्य परिणामोंको छोड़ कर शेष मध्यम स्थितियों सम्बन्धी समस्त परिणाम संक्लेश और विशुद्धि दोनों कडे जा सकते है, और लक्षणभेदके विना एक ही परिणामको दो भिन्न रूप माननेमें विरोध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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