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________________ विषय-परिचय गई है जिन्हें प्रथमसम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाला जीव बांधता है, और दूसरे सूत्रमें वे प्रकृतियां गिनाई गई हैं तथा यह भी प्रकट कर दिया गया है कि उनका स्वामी मनुष्य या तिर्यच होता है। इन प्रकृतियोंकी संख्या ७३ है। विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि उक्त जीव आयुकर्मका बंध नहीं करता, एवं आसाता व स्त्री-नपुंसकवेदादि अशुभ प्रकृतियोंको भी नहीं बांधता । धवलाकारने यहां अपनी व्याख्यामें सम्यक्त्वोन्मुख जीवके किस परिणामोंमें किस प्रकार विशुद्धता बढ़ती है और उससे किस प्रकार अशुभतम, अशुभतर व अशुभ प्रकृतियोंका क्रमशः बंधव्युच्छेद होता है इसका विशद निरूपण किया है ( देखो पृ. १३५-१३९), और अन्तमें क्षयोपशम आदि पांच लब्धियोंके निर्देश करनेवाली गाथाको उद्धृत करके चूलिका समाप्त की है। ४. द्वितीय महादंडक चूलिका जिस प्रकार प्रथम दंडकमें तिर्यंच और मनुष्य प्रथमसम्यक्त्वोन्मुख जीवोंके बंध योग्य प्रकृतियां बतलाई हैं, उसी प्रकार इस दूसरे महादंडकमें प्रथमसम्यक्त्वके अभिमुख, देव और प्रथमादि छह पृथिवियोंके नारकी जीवोंके बंध योग्य प्रकृतियां गिनाई गई हैं । यहां भी सूत्रोंकी संख्या केवल दो ही है। ५. तृतीय महादंडक चूलिका इस चूलिकामें सातवीं पृथिवीके नारकी जीवोंके सम्यक्त्वाभिमुख होने पर बंध योग्य प्रकृतियोंका निर्देश किया गया है । . उपर्युक्त तीनों दडकोंका विषय भी उपर्युक्त महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके समुत्कीर्तना अधिकारसे लिया गया है। ६. उत्कृष्टस्थिति चूलिका कर्मोंका स्वरूप व उनके बंध योग्य स्थानोंका ज्ञान हो जाने पर स्वभावतः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि एक वार बांधे हुए कर्म कितने काल तक जीवके साथ रह सकते हैं, सब कर्मीका स्थितिकाल बराबर ही है या कम बढ़, व सब जीव सब समय एक ही समान कर्मस्थिति बांधते हैं या भिन्न भिन्न, एवं बंध होते ही कर्म अपना फल दिखाने लगते हैं या कुछ काल पश्चात् ? इन्हीं प्रश्नोंके उत्तर आगेकी दो अर्थात् उत्कृष्टस्थिति और जघन्यस्थिति चूलिकामें दिये गये हैं । उत्कृष्टस्थिति चूलिकामें यह बतलाया गया है कि भिन्न भिन्न कर्मोंका अधिकसे अधिक बंधकाल कितना हो सकता है और कितने कालकी उनमें आबाधा हुआ ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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